शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2007

ट्रक, कुत्ते और कविता

भोपाल शहर की बात कर रहा हूँ पर ये नज़ारा तो किसी भी शहर में आम हो सकता है। रोज सुबह मैं अपनी बाइक की सवारी करते हुए कॉलेज जाता हूँ जहाँ मैं पढ़ाता हूँ। कॉलेज शहर के बाहर है हाईवे पर। बहुत सी चीज़ों पर ध्यान जाता है पर एक चीज़ ने मुझे कई दिनों से विचलित कर रखा है। आये दिन कोई न कोई कुत्ता किसी ट्रक या बस के पहियों के तले कुचलकर मारा जाता है। उसी एक सड़क पर पिछले दिनों न जाने कितने कुत्तों की लाशों को मैने देखा है। अब उस लाश का क्या होता है? रोज़ आती जाती गाड़ियों के तले वह कुचलता जाता है। धीरे धीरे वह कालीन की तरह डामर में बिछता जाता है और इसी तरह गायब भी हो जाता है।

उफ ! क्या किसी प्राणी का अंत इससे भी बुरा हो सकता है? शायद इसीलिये कुत्ते की मौत वाली कहावत बनी है। कई बार तो ये भी होता है कि ताज़ा कुचले कुत्ते के पास कुछ पिल्ले चिपके होते हैं अपने माँ या बाप की लाश को सुंघते हुए। पिछले हफ्ते जो देखा वो तो और भी दिल दहलाउ है। एक के बाद एक तीन मासूम पिल्ले कुचले पड़े थे। मासूम सपनों की लाश। जाने क्यों उस रास्ते पर इतने कुत्ते मारे जाते है ? और मैं... सिवा देखने के कुछ नहीं कर पाता। अजीब बेबसी है।

मुझे अपनी ही एक कविता याद आती है जो मैने कुछ साल पहले लिखी थी। वह कविता ये रही।



इंसानियत

भीड़ भरे बाजार में
किसी रोज
किसी गाड़ी से कुचलकर मारा जाता है
कोई आवारा कुत्ता
पर किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
सिवा इसके कि वहाँ से
गुजरते समय ढ़ांप लिया जाता है
नाक को रुमाल से
जब बात हद से बढ़ जाती है
तो फोन किया जाता है नगर निगम को
और हटवाई जाती है कुत्ते की लाश।

उसी बाजार में एक दिन
कोई ट्रक वाला कुचल देता है
किसी पैदल राहगीर को
और जब वह पड़ा तड़प रहा है
तब भीड़ हो जाती है क्रुद्ध
उतारती है ड्रायवर को ट्रक से
पीटती है उसे तब तक
जब तक अधमरा नहीं हो जाता वह
राहगीर दम तोड़ देता है
घटनास्थल पर ही
भीड़ का ग़ुस्सा
सातवें आसमान पर पहुंच जाता है।
ट्रक को कर दिया जाता है
आग के हवाले
पर इससे ही संतुष्ट नहीं होती भीड़
किया जाता है उस जगह
चक्का ज़ाम
किया जाता है थाने का घेराव
लगाये जाते हैं नारे।

शाम को ये लोग लौटते हैं घर
होकर खुश और संतुष्ट
यह सोचते हुए
कि आज हमने किया इंसानियत का काम।

- सोमेश सक्सेना (१७ अक्टूबर २००२)

बुधवार, 7 फ़रवरी 2007

किताबें कुछ कहना चाहती हैं...

हिन्दी चिट्ठा जगत के सभी रथियों - महारथियों को मेरा प्रणाम. आप सभी की प्रेरणा से मैं भी अपने चिट्ठे की शुरुआत कर रहा हूँ. हिन्दी चिट्ठा जगत से मेरा परिचय अधिक पुराना नहीं है, कुछ दिनों पहले ही मैंने इस चमत्कारिक संसार को देख्नना शुरु किया है. अभी तक विस्मित हूँ. मैं स्वयं भी हिन्दी प्रेमी हूँ इसलिये हिन्दी को अंतर्जाल (इंटरनेट) पर देखकर बहुत खुशी होती है, और आज मेरा यही प्रयास है कि मैं भी इस परिवार का हिस्सा बन जाऊँ.

हिन्दी के इस प्रसार पर प्रसन्नता तो हुई ही पर साथ ही मन में एक प्रश्न भी उठा. क्या भविष्य में पुस्तकों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और ई-बुक्स ही रह जायेंगे? क्या छपे हुये पन्नों का स्थान कम्प्युटर स्क्रीन ले लेगा? कहा जाता है कि पुस्तकें मनुष्य कि सबसे अच्छी मित्र होती हैं मैं स्वयं भी यही मानता हूँ- किताबों से बचपन से ही लगाव रहा है और बिना किताबों के जीवन कि कल्पना मैं नहीं कर सकता. इसलिये यह कल्पना मेरे लिये कुछ कष्टप्रद है.

पर तुरंत ही मुझे लगता है कि चाहे जो भी हो किताबें हमेशा से रही हैं और रहेंगी. यह अवश्य हुआ है कि पुस्तक प्रेमियों कि संख्या में पिछले कुछ अर्से से भारी गिरावट आयी है. चैनल क्रांति, इंटरनेट, मोबाइल फोन, एस एम एस और कम्प्युटर गेम्स के इस युग में किताबों से रुझान घटना स्वाभाविक है. पर फिर भी इस स्थिति को बहुत अधिक चिंताजनक तो नहीं कहा जा सकता. भले ही पुस्तक प्रेमी पहले कि तुलना में कम हुये हों पर फिर ऐसे लोगो की कमी नहीं है. जब तक पुस्तकों को प्यार करने वाले उन्हे दोस्त मानने वाले हैं तब तक पुस्तकें भी रहेंगी.

और अगर आप भी मेरी तरह पुस्तक प्रेमी हैं तो समझ सकते हैं इस सुख को. एक मनपसंद किताब, फुरसत के कुछ क्षण और एकांत- क्या यह सुख अतुल्य नहीं है? आप ट्रेन के सफ़र में, बाग में, खुली हवा में, गांव मे, शहर में, बस्ती में, जंगल में, पेड़ के नीचे, नदी किनारे गोया कि हर जगह किताबों का लुत्फ़ उठा सकते हैं.

मेरी बातों का यह आशय कदापि न समझे कि मैं चिट्ठाकारी या ई-बुक्स का विरोधी हूँ, मेरे मन में मात्र यही शंका है कहीं इससे किताबों की लोकप्रियता तो कम नहीं होगी? (मुझे उम्मीद है कि यह शंका गलत होगी) मैं बस यही चाहता हूँ कि अंतर्जाल और पुस्तकों का अंतर्संबंध और मजबूत हो. ऐसा इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठा जगत और हिन्दी प्रकाशन जगत दो समानांतर दुनिया की तरह हैं. ( मैं अपनी बात केवल हिन्दी तक ही सीमित रखुंगा क्योंकि अन्य भाषाओं के बारे में मुझे यह जानकारी नहीं है) हिन्दी चिट्ठा जगत में कितना कुछ घटित हो रहा है, कितनी हलचलें हैं पर एक सामान्य हिन्दी पाठक इससे नावाकिफ़ है. उदाहरण के लिये मैं अपना ही नाम दूंगा, महीने भर पहले तक मैं खुद इससे बिल्कुल अपरिचित था. कारण- हिन्दी की पत्र- पत्रिकाओं में इस बारे में कोई चर्चा नहीं होती (कम से कम मैने तो नही देखी) इसी तरह चिट्ठाजगत में भी नई पुस्तकों और पत्र- पत्रिकाओं की बातें नहीं होती.

इस बारे में कुछ और बातें या कहिये अपने विचार मैं अगले चिट्ठे में कहने की कोशिश करुंगा. फ़िलहाल आप लोगो की प्रतिक्रियाओं का मुझे इंतज़ार रहेगा. मैं अब तक इस दुनिया से भले ही दूर रहा पर अब प्रयास करुंगा कि इस माध्यम से कुछ न कुछ अभिव्यक्त करता रहूँ. इसे पढ़ने वाले सभी लोगो से बस मैं यही कहना चाहता हूँ कि आप निश्चय ही इस माध्यम में अपना योगदान दें पर इस शर्त पर नहीं कि किताबें आपसे दूर हो जायें, की पेड पर उंगलियां चलाते चलाते आप कहीं कागज़ में कलम चलाना न भूल जायें.
अंत में मैं सफ़दर हाशमी की लिखी एक कविता यहाँ दे रहा हूँ जो यूँ तो बच्चों के लिये लिखी गई है पर फिर भी मुझे अत्यंत प्रिय है, काफी समय से. आप भी पढ़िये.


किताबें

किताबें
करती हैं बातें
बीते जमानों की
आज की, कल की
एक एक पल की
खुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं

किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियां लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकिट का राज है
किताबों में में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे ?

किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं