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रविवार, 30 जनवरी 2011

मातृभूमि और राष्ट्रभक्ति...

लीलाधर जगूड़ी समकालीन हिन्दी साहित्य के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि हैं. उनकी एक कविता जो मुझे बहुत प्रिय है अनायास याद आ रही है. चूँकि कई बार रचना रचनाकार से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है और यहाँ मेरा उद्देश्य कविता को सामने लाना है कवि को नहीं, इसलिए कवि का परिचय दिए बिना मैं सीधे कविता ही दे रहा हूँ.
मिलाप 

थोड़ी सी श्रद्धा | थोड़ी सी मातृभूमि | थोड़ी सी राष्ट्रभक्ति से भरे
जो मनुष्य मिलते हैं हमेशा मुझे संशय मे डाल देते हैं.


बहुत सी श्रद्धा | बहुत सी मातृभूमि | बहुत सी राष्ट्रभक्ति वाले भी
मुझे कहीं न कहीं क़ैद कर देना चाहते हैं.


श्रद्धा जो अतार्किक आस्था है
आस्था जो तर्कातीत स्थिति है
मातृभूमि जो राजनीतिक परिसीमन है
और राष्ट्रीयता जो कि भौगोलिक जाति है
मुझे इस बहुत बड़े विश्व में अकेला कर देने के लिए काफी है


सीमित नागरिकता के बावजूद मेरे पास असीम राष्ट्र है
और असीम मातृभूमि
मुझे आल्पस से भी उतना ही प्यार है जितना हिमालय से


हम जितने ही मिश्रित होंगे
उतने ही कम अकेले और कम खतरनाक होंगे.


-लीलाधर जगूड़ी



सोमवार, 20 दिसंबर 2010

प्रतीक... एक कविता


सूर्य का ढलना

प्रतीक है इस बात का

कि हमेशा नहीं रहता

दिन का उजाला

और

सूर्य का निकलना

प्रतीक है इस बात का

कि हमेशा नहीं रह सकता

रात का अँधेरा

रविवार, 8 अप्रैल 2007

वो जो एक पेड़ था

प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है मनुष्य। और आज यही मनुष्य प्रकृति को नष्ट किये जा रहा है। अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, प्रदुषण, पानी का अपव्यय, जैव चक्र में असंतुलन यह सब मानव ही तो कर रहे हैं। इन सबके दूरगामी परिणामों से परिचित होते हुए भी हम कहाँ बाज आ रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग ही हैं जो इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, पर कई बार हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। केवल बेबसी से देखते ही रह जाते हैं। ऐसी ही बेबसी की स्थिति में मैने यह कविता लिखी थी, जो आप सभी सुधिजन के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। चाहें तो इसे नज़्म भी कहा जा सकता है क्योंकि मैने इसे इसी शक्ल में लिखने की कोशिश की है। इस रचना की कमियों की तरफ़ आप ध्यान देंगे और मुझे अवगत कराएंगे इस उम्मीद के साथ यहाँ दे रहा हूँ।


वो जो एक पेड़ था

मैं उस पेड़ को कटने से बचा न सका
वो जो एक कर्ज था उसे मैं चुका न सका

वो पेड़ जो उस बंगले के आँगन में खड़ा था
इशारे करके मुझे धीरे से बुलाता था
कभी छूकर नहीं देखा था मैने उसको
फिर भी एक रिश्ता था कोई हममें
ऐसा लगता था कि कोई पुराना साथी है
जो कि कई मुद्दतों का बिछुड़ा हो
उस नीम, उस पीपल या उस बरगद की तरह
जिनकी बाहोँ में था बचपन गुजरा

और उस दिन मैने वहाँ देखा हत्यारों को
साथ अपने वे हथियार लेके आए थे
वे उस पेड़ के ही खून के प्यासे थे
जान लेने को उसकी अमादा थे
मेरे दोस्त ने तब मुझको ही पुकारा था
उसकी आवाज़ में, चेहरे में एक दर्द सा था
घबरा गया था उसको देखकर मैं भी तो
कुछ तो करना है मुझे मैने ये सोचा था

बंगले के मालिक से मैं मिलने तो गया
बात उससे मगर अपनी मनवा ना सका
वो ऊंचे महलों का और मैं जमीं का था
शायद यही खौफ़ मेरे दिल मैं था
मैं डर गया था उससे नहीं लड़ पाया
और उस पेड़ को यूँ ही कट जाने दिया
देखता रहा उसके टुकड़ों के टुकड़े होते
कितना कायर था कि कुछ कर भी न सका

हाँ एक कर्ज ही तो था जिसे चुका न सका
कि उस पेड़ को कटने से भी बचा न सका

- सोमेश सक्सेना

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2007

ट्रक, कुत्ते और कविता

भोपाल शहर की बात कर रहा हूँ पर ये नज़ारा तो किसी भी शहर में आम हो सकता है। रोज सुबह मैं अपनी बाइक की सवारी करते हुए कॉलेज जाता हूँ जहाँ मैं पढ़ाता हूँ। कॉलेज शहर के बाहर है हाईवे पर। बहुत सी चीज़ों पर ध्यान जाता है पर एक चीज़ ने मुझे कई दिनों से विचलित कर रखा है। आये दिन कोई न कोई कुत्ता किसी ट्रक या बस के पहियों के तले कुचलकर मारा जाता है। उसी एक सड़क पर पिछले दिनों न जाने कितने कुत्तों की लाशों को मैने देखा है। अब उस लाश का क्या होता है? रोज़ आती जाती गाड़ियों के तले वह कुचलता जाता है। धीरे धीरे वह कालीन की तरह डामर में बिछता जाता है और इसी तरह गायब भी हो जाता है।

उफ ! क्या किसी प्राणी का अंत इससे भी बुरा हो सकता है? शायद इसीलिये कुत्ते की मौत वाली कहावत बनी है। कई बार तो ये भी होता है कि ताज़ा कुचले कुत्ते के पास कुछ पिल्ले चिपके होते हैं अपने माँ या बाप की लाश को सुंघते हुए। पिछले हफ्ते जो देखा वो तो और भी दिल दहलाउ है। एक के बाद एक तीन मासूम पिल्ले कुचले पड़े थे। मासूम सपनों की लाश। जाने क्यों उस रास्ते पर इतने कुत्ते मारे जाते है ? और मैं... सिवा देखने के कुछ नहीं कर पाता। अजीब बेबसी है।

मुझे अपनी ही एक कविता याद आती है जो मैने कुछ साल पहले लिखी थी। वह कविता ये रही।



इंसानियत

भीड़ भरे बाजार में
किसी रोज
किसी गाड़ी से कुचलकर मारा जाता है
कोई आवारा कुत्ता
पर किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता
सिवा इसके कि वहाँ से
गुजरते समय ढ़ांप लिया जाता है
नाक को रुमाल से
जब बात हद से बढ़ जाती है
तो फोन किया जाता है नगर निगम को
और हटवाई जाती है कुत्ते की लाश।

उसी बाजार में एक दिन
कोई ट्रक वाला कुचल देता है
किसी पैदल राहगीर को
और जब वह पड़ा तड़प रहा है
तब भीड़ हो जाती है क्रुद्ध
उतारती है ड्रायवर को ट्रक से
पीटती है उसे तब तक
जब तक अधमरा नहीं हो जाता वह
राहगीर दम तोड़ देता है
घटनास्थल पर ही
भीड़ का ग़ुस्सा
सातवें आसमान पर पहुंच जाता है।
ट्रक को कर दिया जाता है
आग के हवाले
पर इससे ही संतुष्ट नहीं होती भीड़
किया जाता है उस जगह
चक्का ज़ाम
किया जाता है थाने का घेराव
लगाये जाते हैं नारे।

शाम को ये लोग लौटते हैं घर
होकर खुश और संतुष्ट
यह सोचते हुए
कि आज हमने किया इंसानियत का काम।

- सोमेश सक्सेना (१७ अक्टूबर २००२)