बड़ा ही अजीब लड़का था वो। पर कुछ भी कहो बात तो पते की कह गया।
हुआ यूँ कि उस दिन मैं सब्जी लेने बाज़ार गया था। तो जब एक चाट के ठेले के पास खड़ा सोच रहा था कि कौन सी सब्जियाँ ली जाएँ एक लड़का अचानक चाट वाले के पास पहुँचा और जोर से बोला- "भाई एक कुल्फी देना।"
चाट वाले से कुल्फी? सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। बड़ा बेवकूफ़ है, मैने सोचा और उसकी तरफ़ निगाह फेरी।
सोचा चाट वाले ने भी यही होगा, बोला- "अरे भाई दिखता नहीं क्या? मैं चाट बेच रहा हूँ, कुल्फी नहीं।"
"कुल्फी तो देना ही पड़ेगा। तुम्हारे ठेले पर तुमने लिखवा जो रखा है- श्री कुल्फी सेंटर।" सचमुच लिखा तो यही था उस ठेले पर, मैने भी ध्यान दिया।
"अरे भाई पहले इस ठेले पर कुल्फियां बेचता था पर अब तो चाट बेच रहा हूँ न।"
"अब चाट बेच रहे हो तो नाम क्यों नहीं बदलवाया? कुल्फी तो तुम्हे देनी ही पड़ेगी।"
"अरे नहीं बदलवाया तो क्या जान लोगे। चाट खाना है तो खाओ नहीं तो मेरा टाइम खोटा मत करो। ग्राहक खड़े हैं।"
"नहीं, खा के मैं कुल्फी ही जाउँगा चाहे कहीं से लाओ। अब गलती तुम्हारी है तो मैं क्यों भुगतूं।"
"अरे पागल है क्या, भाग यहाँ से" चाट वाले को अब गुस्सा आ गया। और बस दोनो मे बहस शुरु हो गई।
कुछ देर तक तो मैं बहस का मजा लेता रहा फिर मुझसे रहा नहीं गया। लड़के को मैने एक तरफ खींचा और कहा - "क्यों उस गरीब को परेशान कर रहे हो यार?"
" अरे साहब मैं कोई जानबूझ कर परेशान नहीं कर रहा हूँ, मैं तो बस परंपरा का पालन कर रहा हूँ. "
" अरे साहब मैं कोई जानबूझ कर परेशान नहीं कर रहा हूँ, मैं तो बस परंपरा का पालन कर रहा हूँ. "
" परंपरा का पालन? मैं समझा नहीं?"
"देखिए जनाब हमारे यहाँ एक परंपरा यह भी रही है के जो पढ़ो उसी पर यकीं करो जो देखो सुनो उसे झुठला दो। तो आखिर मैं भी तो यही कर रहा हूँ न?"
"अच्छा! पर बात कुछ समझ नहीं आई।"