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सोमवार, 24 जनवरी 2011

रेलगाड़ी रेलगाड़ी...

परसों सलिल जी ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी भारतीय रेलवे के बारे में। इसमें उन्होने एक रेलकर्मी की अनोखी सज़ा का वर्णन किया था। इस पोस्ट को पढ़कर हमें भी रेलवे से जुड़ी ढेरों बातें और ढेरों यात्राएं याद आ गयीं। भारतीय रेलों का महत्व हम सभी के जीवन में न केवल यात्रा के लिए है बल्कि इस के माध्यम से हम अपने देश की सांस्कृतिक विविधता से भी परिचित होते हैं मुझे तो खासतौर पर ट्रेन और प्लेटफार्म में लोगों को देखना उनके व्यवहार, भाषा, बातचीत, वेश-भूषा आदि का अध्ययन करना बहुत पसंद है।

पर इस समय मैं रेल के बहाने अपने बचपन को याद करना चाहता हूँ। नहीं जी, मेरे परिवार में कोई रेलवे में नहीं रहा पर फिर भी रेल यात्राओं से जुडी बहुत यादें हैं। मेरा पूरा बचपन रायपुर और उसके आसपास की जगहों में मतलब छत्तीसगढ़ में बीता है पर मेरे ननिहाल और ददिहाल दोनो ही बुंदेलखंड में है। सो हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए हम सब वहाँ जाते थे। इसके लिए हम छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर से झांसी का लम्बा सफ़र करते थे और इसी ट्रेन से वापिस भी आते थे ये आमतौर पर ये हमारी साल भर की अकेली रेल यात्रा होती थी (यदि बीच में कोई शादी वगैरह न पड़ी तो) और हम तीनो भाई बहन इसे खूब एंजॉय करते थे। रास्ते में खाते पीते लोगों से दोस्ती करते रास्ता कटता था। चूँकि मेरे ज्यादातर दोस्त आसपास के ही थे इसलिए अमूमन रेल यात्राओं से वे लोग वंचित रहते थे और इसी वजह से मैं अपनी यात्राओं का अनुभव बताकर उन्हें जलाने और प्रभावित करने की कोशिश करता था और अक्सर सफ़ल भी होता था।

उन दिनों को याद करता हूँ तो सबसे पहले मुझे कॉमिक्स याद आते हैं। बचपन में मैं कॉमिक्स का विकट शौक़ीन था और रेल यात्राओं के दौरान कॉमिक्स पढ़ना तो मेरा परम धर्म था। जैसे ही हम किसी स्टेशन पर पहुंचते थे मैं सबसे पहले बुक स्टॉल की तरफ भागता था और जब तक दो चार कॉमिक्स न ले लूँ वहाँ से टरता नहीं था। कॉमिक्स और रेल ये दोनों तो जैसे साथ में ही गुंथे हुए हैं बचपन की यादों मे। मुझे अगर कॉमिक्स नहीं दिलाया जाता था तो मैं आसमान सर पर उठा लेता था।

और भी यादें हैं मसलन जब हम ट्रेन से उतर चुके होते तो भी एकाध दिन तक यही लगता था जैसे ट्रेन में ही बैठे हों। (अब जाने क्यों ऐसा अहसास नहीं होता चाहे जितनी लम्बी यात्रा ही क्यों न कर लें)

उन्ही दिनों दूरदर्शन में एक विज्ञापन आया करता था भारतीय रेलवे का जो पूरा तो याद नहीं है पर उसकी आखिरी लाइन थी- "हम बेहतर इसे बनाएँ.... रेलवे..." इस विज्ञापन को देखकर मैं हमेशा रोमांचित हो जाता था और इंतज़ार करने लगता था कब रेल में बैठने को मिलेगा।
भारतीय रेलवे के १५० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर जारी डाक टिकट 
यादें और बातें और भी हैं पर मेरा मानना है कि सबसे बड़ा पाप किसी को बोर करना है इसलिए....! सलिल जी को फिर से धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने अपने पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने बचपन की सुनहरी यादें दिलाईं। ये यादें ही तो असली खजाना हैं, है न?

हाँ एक बात और, रेल की बात से मुझे अशोक कुमार का गाना "रेलगाड़ी रेलगाड़ी..." याद आ गया। आप सब ने सुना ही होगा। ये गाना हमें बहुत पसंद था और इसे सुनकर हम सभी को बहुत गर्व और खुशी होती थी क्यों? इस गीत में एक जगह अशोक कुमार कहते हैं - "रायपुर- जयपुर, जयपुर- रायपुर..."  अब बताइये किसी गाने में अपने शहर का नाम सुनकर भला किसे अच्छा नहीं लगेगा। और हज़ारों हिन्दी फ़िल्मी गानों में ये एक अकेला गाना था जिसमे रायपुर का नाम आता था इसलिए बहुत स्पेशल स्पेशल सी फीलिंग होती थी हमें।

बरसों बाद यही खुशी " ससुराल गेंदा फूल" ने दी।  :)

तो चलिए मेरे साथ आप भी अशोक कुमार के इस सदाबहार क्लासिक गीत का आनंद लें-


बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ...

रात की ओर अग्रसर शाम। मैं "न्यू मार्केट" में घूम रहा हूँ। पूरा बाज़ार सजा हुआ है। दीवाली की रौनक है। दुकानदारोँ ने दुकान के बाहर भी दुकान लगा रखी है। सारे फ़ुटपाथ पर छोटे बड़े व्यापारियों ने कब्जा कर रखा है। पैदल चलना भी दूभर है। भीड़ भी बहुत ज्यादा है। ऐसा लग रहा है मानो कोई मेला लगा हो। वैसे अतिक्रमण की समस्या तो स्थायी है। बीच बीच मे इन्हे हटाने का अभियान चलता है पर फिर वही हाल हो जाता है। इसका सबसे ज्यादा असर किसी भी रविवार को देखा जा सकता है इस दिन जैसे आधा शहर यहीं आ जाता है और सड़कों और फुटपाथों पर लगी दुकानों के बीच आप सरक सरक कर ही आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन आज तो किसी भी आम रविवार से भी ज्यादा ख़राब हालत है। यही हाल पार्किंग का है, गाड़ी खड़ी करने के लिए जगह पाना किसी जंग के जीतने से कम नहीं है।

मैं बाज़ार के अंदर  हूँ। हर तरफ़ रोशनी और रंगीनियाँ छाई हैं। सारे दुकानदार ग्राहकों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मन करता है सब कुछ खरीद लें। ढ़ेर सारे स्टॉल उन चीज़ों से भरे पड़े हैं जो खास तौर पर दीवाली के समय ही मिलती हैं। इनमे सजावट और पूजन सामग्रियों से लेकर खाने पीने की वस्तुयेँ शामिल हैं। तभी एक बच्चे पर नज़र जाती है जो आती जाती महिलाओं और लड़कियों को रोककर कह रहा है- " दीदी नाड़ा लीजिये, आंटी नाड़ा लीजिये।" बच्चे के हाथ में प्लास्टिक का चौकोर पात्र है जिसमे नाड़े के बंडल हैं। फिर ध्यान जाता है पूरे बाज़ार मे ऐसे कितने ही 10 से 14 साल के बच्चे विभिन्न सामान बेच रहे हैं हैं। सड़क किनारे दुकान फैलाकर या घूम घूम कर बैग, कपड़े, सजावटी चीज़ें, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक आइटम और न जाने क्या क्या ये बेचते हैं। अक्सर इन्हे देखता हूँ और राजेश जोशी की कविता " बच्चे काम पर जा रहे हैं" की पंक्तियां दोहराता हूँ। ये बच्चे शायद काम करने के लिये ही अभिशप्त हैं।

मंगलवार, 20 मार्च 2007

भारत २० वर्ष बाद - एक स्वप्न

इससे पहले कि आप इसे पढ़ें मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह मेरी कल्पना नहीं है। लगभग दो साल पहले मेरे मेल मे यह मैसेज आया था। जिसने मुझे भेजा था उसे किसी और ने फारवर्ड किया था, उस फारवर्ड करने वाले को किसी और ने किया था। इस तरह फारवर्डिंग का लम्बा सिलसिला था इसलिये यह बताना लगभग असम्मभव है कि इसे किसने लिखा था। मुझे अच्छा लगा था इसलिये यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। उक्त लेख अंग्रेजी में था मैने सिर्फ़ इतना किया है कि इसे हिन्दी में अनुदित कर दिया है। इसके अतिरिक्त यथास्थान कुछ परिवर्तन भी किये हैं। यदि आपको यह पसंद आये तो उस अन्जान लेखक को धन्यवाद करें, पसंद न आये तो मुझे कोसे कि कहाँ - कहाँ से कूड़ा-कचरा ढूढ़ लाता है।
भारत २० वर्ष बाद - एक स्वप्न वार्तालाप
वर्ष 2027
IBM, USA में दो अमेरिकी
अलेक्स: हेलो मेक कैसे हो? कल ऑफिस क्यों नहीं आए थे?
मेक: हाय अलेक्स, कल मैं भारत का वीज़ा लेने के लिये भारतीय दूतावास गया था।
अलेक्स: सचमुच! क्या हुआ? मैने सुना है आजकल यह बहुत मुश्किल है।
मेक: हाँ है तो पर मैने किसी तरह प्राप्त कर लिया।
अलेक्स: कितना वक़्त लगा?
मेक: मत पूछो यार, बहुत लम्बी लाइन लगी थी। बिल गेट्स मेरे आगे खड़ा था और उन लोगो ने उसे बहुत परेशान किया। इसीलिये इतना समय लगा। छः घंटे मैं खड़ा रहा।
अलेक्स: सचमुच, भारत में USA का वीज़ा लेने में एक घंटे से अधिक नहीं लगता।
मेक: हाँ, पर ऐसा इसलिये क्योंकि भारत से भला कौन यहाँ आना चाहेगा। उनका आर्थिक ढांचा दिनो-दिन मजबूत होता जा रहा है।
अलेक्स: तो कब जा रहे हो तुम?
मेक: जैसे ही मुझे भारत की अपने कम्पनी से टिकिट मिल जाएंगे तुरंत निकल जाउंगा। और पता है मुझे इंडियन एअरलाइंस मे यात्रा करने का अवसर मिल रहा है, ये एक सपने के सच होने जैसा है।
अलेक्स: तुम वहाँ कितने दिन रूकने वाले हो?
मेक: कितने दिन से तुम्हारा क्या मतलब है? मैं तो वहीं सैटल होना चाहता हूँ। मेरी कम्पनी ने मुझसे वादा किया है कि वो मुझे हरा पत्र (Green Card) दिलवाएगी।
अलेक्स: बहुत भाग्यशाली हो, भारत में हरा पत्र पाना बहुत मुश्किल है।
मेक: हाँ है तो, इसीलिये मैं वहाँ किसी भारतीय लड़की से शादी करने की सोच रहा हूँ।
अलेक्स: पर चेन्नई, बंगलुरु, मुम्बई जैसे शहरों में तुम्हे बहुत सी अमेरिकी लड़कियाँ मिल जाएंगी।
मेक: पर मैं भारतीय लड़कियों को पसंद करता हूँ क्योंकि वे ख़ूबसूरत और सुसंस्कृत होती हैं।
अलेक्स: तुम्हे कहाँ से ऑफर मिला? चेन्नई से?
मेक: हाँ, वेतन बहुत अच्छा है पर बहुत महंगा शहर है। एक सिंगल रूम का एक दिन का न्यूनतम किराया है 1000/- रु०
अलेक्स: बाप रे! हम अमेरिकी लोगो के लिये तो ये बहुत महंगा है क्योंकि Rs 1/- = $ 100 हे भगवान। बेंगलुरू और मुम्बई कैसे हैं?
मेक: कह नहीं सकता। पर इससे कम क्या होंगे?
अलेक्स: मैने सुना है कि सभी भारतीयों के पास पर्सनल रोबोट्स होते हैं?
मेक: तुम 5ooo/- रु० में एक BMW कार ले सकते हो। रु० 7500/- से भी कम मे रोबोट।
अलेक्स: वैसे तुम्हारा क्लाइंट कौन है?
मेक: अयंगर एन्ड अयंगर एसोसिएट्स, एक पूर्ण भारतीय कम्पनी। साफ्ट्वेयर के क्षेत्र मे इसकी सानी नहीं है।
अलेक्स: बड़े भाग्यशाली हो कि एक भारतीय कम्पनी में काम करने का मौका मिल रहा है। बड़े ही सुव्यवस्थित होते हैं और वेतन भी अच्छा देते हैं। हमारी अमेरिकी कम्पनियों से तो कहीं अच्छी हैं
अभी कुछ दिन पहले ही मेरा एक दोस्त अपनी छुट्टियाँ बिताने ’बिहार’ गया था, जो भारत की सबसे ज्यादा सुरक्षित और रहने लायक जगह है, बल्कि शायद दुनिया की। वहाँ आपको पूरी आज़ादी होती है। आप जो चाहे कर सकते हैं। कोई डर नहीं है। मैं हमेशा चकित रहता हूँ कि उस प्रदेश ने इतनी अच्छी व्यवस्था कैसे बना कर रखी है।
मेक: बिल्कुल, तुम सच कह रहे हो। उम्मीद है अमेरिका भी उनके पदचिन्हों पर चलेगा।
अलेक्स: तुम्हे वहाँ भाषा की कोई दिक्कत तो नहीं आएगी न?
मेक: बिल्कुल भी नहीं, मै न्यूयार्क के अपने स्कूल के दिनो से ही हिन्दी को फर्स्ट लेंग्वेज के रूप में पढ़ रहा हूँ। चुनने से पहले उन्होने मेरी हिन्दी की परीक्षा भी ली थी। और TOHIL ( Test of Hindi as International Language) में मेरे शत प्रतिशत स्कोर से वे बहुत प्रभावित हुए।
क्या ये स्वप्न कभी सच हो सकता है ? ये हम सब पर निर्भर करता है। एक नये भारत के लिये शुभकामनाएँ - सोमेश सक्सेना