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रविवार, 24 नवंबर 2013

एक नयी शुरुआत

कोई सात साल पहले मैं हिंदी ब्लॉग जगत से परिचित हुआ था। पढ़कर खुद भी ब्लॉगिंग करने की इच्छा हुई तो मैंने भी ब्लॉग बना लिया। तब कबीर का एक पद याद आया- 'साधो सबद साधना कीजे' बस मैंने ब्लॉग का नाम रख लिया -"शब्द साधना"। नाम तो रख लिया पर साधना जैसा कुछ भी नहीं था। यह जल्दी ही साबित भी हो गया जब मैंने साल भर के अंदर ही ब्लॉगिंग बंद कर दी। कुछ साल बाद मैंने पुनः ब्लॉगिंग शुरू की। इस बार कुछ ज्यादा समय तक सक्रिय रहा पर उसके बाद फिर बंद। हालत यह है कि पिछले लगभग तीन साल से कोई पोस्ट नहीं लिखी। इस बीच कई बार सोचा कि कुछ लिखूं पर हर बार टलता रहा। लम्बे समय तक पोस्ट लंबित रहने के बाद मैंने इस ब्लॉग को ही हाईड कर दिया। आखिर अब जाकर मैंने तय किया कि फिर से ब्लॉगिंग शुरू की जाये। तो लीजिये कर दी एक नयी शुरुआत।

चूँकि मैं न तो शब्दों का धनी हूँ और न ही कहीं से साधक हूँ इसलिए सबसे पहले तो मैंने इसका नाम शब्द साधना बदलने का निर्णय लिया। नाम रखते समय जो गलती हुई थी उसे सुधारना भी तो जरुरी है -देर से ही सही। (वैसे भी किसी ब्लॉगर ने मुझसे कहा था कि इस नाम से लगता है किसी बड़े साहित्यिक का ब्लॉग है, एक अन्य ब्लॉगर ने कहा कि बड़ा भारी भरकम नाम है लगता है जैसे कम से कम पचास साल के आदमी का हो।) अब लेखन में रूचि होने के बावजूद ब्लॉग लेखन तो मैं ठीक से कर नहीं पाया, न तो नियमित रूप से ब्लॉग लिखता हूँ और न ही दुसरे ब्लॉग्स पर टिप्पणी करता हूँ इसलिए मैं खुद को ब्लॉगर के बजाय "लगभग ब्लॉगर" मानता हूँ। बस इसलिए ब्लॉग का नाम भी रख दिया "लगभग ब्लॉग", वैसे भी जिस ब्लॉग पर छह साल में तीस पोस्ट भी न हों उसे ब्लॉग के बजाय लगभग ब्लॉग कहना ही उचित होगा। नाम बदलने के साथ मैंने इसमें थोड़े बहुत बदलाव भी कर दिए। बहुत से अनावश्यक से विजेट्स हटा दिए और कुछ पोस्ट भी डिलिट कर दिए जो मुझे अब फालतू लगे।

बहुत से लोगो ने मुझसे पूछा कि मैंने ब्लॉग लिखना बंद क्यों किया? दरअसल इसके बहुत से कारण हैं। एक तो यह कि तब कुछ व्यस्तताओं के चलते अधिक समय ब्लॉग को नहीं दे पाया। काफी समय तक इंटरनेट और कंप्यूटर कि अनुपलब्धता भी रही। फिर स्वभाव से ही आलसी हूँ तो लिखने मैं भी आलस करता रहा, और मुझमें इतनी प्रतिभा भी नहीं है कि निरंतर सृजन करता रहूँ। एक कारण यह भी है कि हिंदी ब्लॉग जगत से मेरा मन भी कुछ उचट सा गया था। यहाँ का चलन कि टिप्पणियों कि संख्या ही ब्लॉग कि लोकप्रियता और गुणवत्ता का प्रमाण माना जाता है, मुझे निराश सा करता रहा। बहुत से ऐसे ब्लॉग मिले जो बिलकुल भी स्तरीय और पठनीय नहीं हैं पर उनमें कमेंट्स कि लाइन लगी होती है। कमेंट के बदले कमेंट की परिपाटी ने हिंदी ब्लॉग का बहुत नुक्सान किया है। पर जैसा मैंने कहा कि यह एकमात्र कारण नहीं है। बहुत से बेहतरीन ब्लॉग्स भी मुझे पढ़ने को मिले, पर ऐसे ब्लॉग्स का प्रतिशत बहुत कम है। बाद में मैं फेसबुक पर थोडा सक्रिय हो गया और वहाँ विचार व्यक्त करना ब्लॉग से ज्यादा आसान और सुविधाजनक है इसलिए भी ब्लॉग पर लिखना टलता गया।

अब ब्लॉग तो मैंने फिर से शुरू कर दिया है मगर इसे नियमित रूप से कर पाउँगा इसमें मुझे गहरा संदेह है। कारण वही सब है जो मैंने ऊपर लिखे हैं। इसलिए इस बार मैंने खुद के लिए दो नियम बनाये हैं -
  1. कोई भी पोस्ट तभी लिखूंगा जब वास्तव में लिखने के लिए मेरे पास कुछ हो। केवल पोस्ट्स की संख्या या नियमितता बढ़ाने के लिए कभी नहीं लिखूंगा, चाहे दो पोस्ट्स के बीच कितना भी समय अंतराल हो।

शनिवार, 5 मार्च 2011

तेरा क्या और मेरा क्या?

अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन में ऐसे अनेक कार्यक्रम आया करते थे जिन्हें याद करके किसी का भी नॉस्टेलजिक हो जाना स्वाभाविक है मेरा भी बचपन और लड़कपन दूरदर्शन देखते हुए गुजरा है. ऐसे अनेक कार्यक्रम, धारावाहिक, शोज़, फ़िल्में, विज्ञापन इत्यादि हैं जो मुझे फिर उसी दौर में ले जाते हैं इनका रोमांच ही अलग है ऐसा ही एक कार्यक्रम था जो बच्चों के लिए आया करता था, हालांकि बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं था, इसका नाम था 'टर रम टू' शायद आपको याद यह याद हो इसके प्रमुख पात्र थे नट्टू, हिसाबी, कटोरी, आज़ाद इत्यादि छोटी छोटी रोचक कहानियों और मजेदार संवादों के द्वारा इसमें बच्चों को गणित, सामान्य ज्ञान, अक्षर ज्ञान, नैतिक शिक्षा आदि सिखाया जाता था खेल खेल में सीखो के अंदाज में मुझे टर रम टू बहुत पसंद था हालांकि जिस आयुसमूह के बच्चों के लिए इसे बनाया गया होगा मैं उससे बड़ा ही था


पर आज इसे याद करने का कारण दूसरा है टर रम टू का एक टाइटल गीत भी था जिसके बोल थे - 'ये है टर रम टू रे भैया ये है टर रम टू' इसी गीत का एक अंतरा है जो पिछले कई सालों से मेरे जेहन में रह रह कर गूंजता रहता है वो कुछ ऐसा है-

यहाँ तेरा तो तेरा ही है...
और मेरा भी मेरा ही है...
पर तेरा भी मेरा ही है...
और मेरा भी तेरा ही है...
तो तेरा क्या और मेरा क्या...? 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

रेलगाड़ी रेलगाड़ी...

परसों सलिल जी ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी भारतीय रेलवे के बारे में। इसमें उन्होने एक रेलकर्मी की अनोखी सज़ा का वर्णन किया था। इस पोस्ट को पढ़कर हमें भी रेलवे से जुड़ी ढेरों बातें और ढेरों यात्राएं याद आ गयीं। भारतीय रेलों का महत्व हम सभी के जीवन में न केवल यात्रा के लिए है बल्कि इस के माध्यम से हम अपने देश की सांस्कृतिक विविधता से भी परिचित होते हैं मुझे तो खासतौर पर ट्रेन और प्लेटफार्म में लोगों को देखना उनके व्यवहार, भाषा, बातचीत, वेश-भूषा आदि का अध्ययन करना बहुत पसंद है।

पर इस समय मैं रेल के बहाने अपने बचपन को याद करना चाहता हूँ। नहीं जी, मेरे परिवार में कोई रेलवे में नहीं रहा पर फिर भी रेल यात्राओं से जुडी बहुत यादें हैं। मेरा पूरा बचपन रायपुर और उसके आसपास की जगहों में मतलब छत्तीसगढ़ में बीता है पर मेरे ननिहाल और ददिहाल दोनो ही बुंदेलखंड में है। सो हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए हम सब वहाँ जाते थे। इसके लिए हम छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर से झांसी का लम्बा सफ़र करते थे और इसी ट्रेन से वापिस भी आते थे ये आमतौर पर ये हमारी साल भर की अकेली रेल यात्रा होती थी (यदि बीच में कोई शादी वगैरह न पड़ी तो) और हम तीनो भाई बहन इसे खूब एंजॉय करते थे। रास्ते में खाते पीते लोगों से दोस्ती करते रास्ता कटता था। चूँकि मेरे ज्यादातर दोस्त आसपास के ही थे इसलिए अमूमन रेल यात्राओं से वे लोग वंचित रहते थे और इसी वजह से मैं अपनी यात्राओं का अनुभव बताकर उन्हें जलाने और प्रभावित करने की कोशिश करता था और अक्सर सफ़ल भी होता था।

उन दिनों को याद करता हूँ तो सबसे पहले मुझे कॉमिक्स याद आते हैं। बचपन में मैं कॉमिक्स का विकट शौक़ीन था और रेल यात्राओं के दौरान कॉमिक्स पढ़ना तो मेरा परम धर्म था। जैसे ही हम किसी स्टेशन पर पहुंचते थे मैं सबसे पहले बुक स्टॉल की तरफ भागता था और जब तक दो चार कॉमिक्स न ले लूँ वहाँ से टरता नहीं था। कॉमिक्स और रेल ये दोनों तो जैसे साथ में ही गुंथे हुए हैं बचपन की यादों मे। मुझे अगर कॉमिक्स नहीं दिलाया जाता था तो मैं आसमान सर पर उठा लेता था।

और भी यादें हैं मसलन जब हम ट्रेन से उतर चुके होते तो भी एकाध दिन तक यही लगता था जैसे ट्रेन में ही बैठे हों। (अब जाने क्यों ऐसा अहसास नहीं होता चाहे जितनी लम्बी यात्रा ही क्यों न कर लें)

उन्ही दिनों दूरदर्शन में एक विज्ञापन आया करता था भारतीय रेलवे का जो पूरा तो याद नहीं है पर उसकी आखिरी लाइन थी- "हम बेहतर इसे बनाएँ.... रेलवे..." इस विज्ञापन को देखकर मैं हमेशा रोमांचित हो जाता था और इंतज़ार करने लगता था कब रेल में बैठने को मिलेगा।
भारतीय रेलवे के १५० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर जारी डाक टिकट 
यादें और बातें और भी हैं पर मेरा मानना है कि सबसे बड़ा पाप किसी को बोर करना है इसलिए....! सलिल जी को फिर से धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने अपने पोस्ट के माध्यम से मुझे अपने बचपन की सुनहरी यादें दिलाईं। ये यादें ही तो असली खजाना हैं, है न?

हाँ एक बात और, रेल की बात से मुझे अशोक कुमार का गाना "रेलगाड़ी रेलगाड़ी..." याद आ गया। आप सब ने सुना ही होगा। ये गाना हमें बहुत पसंद था और इसे सुनकर हम सभी को बहुत गर्व और खुशी होती थी क्यों? इस गीत में एक जगह अशोक कुमार कहते हैं - "रायपुर- जयपुर, जयपुर- रायपुर..."  अब बताइये किसी गाने में अपने शहर का नाम सुनकर भला किसे अच्छा नहीं लगेगा। और हज़ारों हिन्दी फ़िल्मी गानों में ये एक अकेला गाना था जिसमे रायपुर का नाम आता था इसलिए बहुत स्पेशल स्पेशल सी फीलिंग होती थी हमें।

बरसों बाद यही खुशी " ससुराल गेंदा फूल" ने दी।  :)

तो चलिए मेरे साथ आप भी अशोक कुमार के इस सदाबहार क्लासिक गीत का आनंद लें-


शनिवार, 11 दिसंबर 2010

डॉक्टर की दुकान में ग्राहकों की भीड़


पिछले हफ्ते की ही बात है। मेरे एक परिचित को तेज पीठ दर्द की तकलीफ थी। उन्हे लेकर डॉक्टर के पास जाना था, तो उन्ही के बताए एक डॉक्टर के पास गए जिनके बारे में उनका कहना था कि वे शहर के सबसे अच्छे हड्डी रोग विशेषज्ञों में से एक हैं। मैं इन डॉक्टर के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर लगी भीड़ से ये अंदाजा हो गया कि उनकी प्रेक्टिस अच्छी चलती है। अंदर गए तो वेटिंग हाल में भी कुछ लोग बैठे थे। डॉक्टर का केबिन शायद अंदर की तरफ था जहाँ जाने के लिए एक खुला दरवाजा नज़र आ रहा था। वहीं एक कम्पाउंडर नुमा आदमी बैठा था। मैं उसके पास गया और पूछा कि डॉक्टर साहब हैं, उसके हाँ कहने पर मैने अर्ज किया कि दिखाना है आप मरीज का नाम लिख लो। इस पर उसने जानकारी दी कि यहाँ नाम लिखाने की जरूरत नहीं है। आप बैठिए।

चलिए ये भी ठीक है मैने सोचा और जाकर बैठ गया। मुझे लगा कि वो आदमी खुद ही ध्यान रखेगा कि कौन पहले आया और कौन बाद में और उसी क्रम से लोगों को बुलाता रहेगा। पर काफी देर तक बैठे रहने पर मैने महसूस किया कि इतनी देर में कोई अंदर नहीं गया, हाँ कुछ लोग बाहर आते जरूर दिखे। फिर वो आदमी भी अपनी जगह नहीं था बल्कि इधर उधर हो रहा था। मेरी बैचेनी थोड़ी बढ़ गई। मैं उठकर डॉ. के केबिन के पास गया। वहाँ एक दूसरा बंदा खड़ा था। मैने उसी से पूछा-

"क्यों भाई डॉ. साहब नहीं हैं क्या?"

"हैं न, अंदर हैं।"

"दिखाना है, टाइम लगेगा क्या?"

"दिखाना है तो चले जाओ अंदर"

ये सुनकर तो मेरी बाँछें खिल गई। मुझे लगा कि डॉ. खाली होगा। मैने तुरंत मरीज को आवाज लगायी, आ जाओ, आ जाओ फटाफट। पर जैसे ही उन्हे लेकर मैं अंदर गया वहाँ का दृश्य देखकर ठिठक कर रह गया।

अंदर एक बड़ी सी टेबल रखी थी और उसके पीछे डॉ. बैठा हुआ था। पर मैं न तो डॉ. को देख पा रहा था और न ही टेबल को, क्योंकि उस टेबल के इस और लगभग १५-२० लोगों की भीड़ लगी हुई थी। पहली नज़र में ही समझ आ गया कि ये सब मरीज और उनके परिजन हैं। अब जरा वहाँ का आँखों देखा हाल भी सुनिए-

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

आँख मूँद कर पढ़ने वाले उर्फ़ चाट और कुल्फी

ड़ा ही अजीब लड़का था वो। पर कुछ भी कहो बात तो पते की कह गया।

हुआ यूँ कि उस दिन मैं सब्जी लेने बाज़ार गया था। तो जब एक चाट के ठेले के पास खड़ा सोच रहा था कि कौन सी सब्जियाँ ली जाएँ एक लड़का अचानक चाट वाले के पास पहुँचा और जोर से बोला- "भाई एक कुल्फी देना।"

चाट वाले से कुल्फी? सुनकर मेरे कान खड़े हो गए। बड़ा बेवकूफ़ है, मैने सोचा और उसकी तरफ़ निगाह फेरी।

सोचा चाट वाले ने भी यही होगा, बोला- "अरे भाई दिखता नहीं क्या? मैं चाट बेच रहा हूँ, कुल्फी नहीं।"

"कुल्फी तो देना ही पड़ेगा। तुम्हारे ठेले पर तुमने लिखवा जो रखा है- श्री कुल्फी सेंटर।" सचमुच लिखा तो यही था उस ठेले पर, मैने भी ध्यान दिया।

"अरे भाई पहले इस ठेले पर कुल्फियां बेचता था पर अब तो चाट बेच रहा हूँ न।"

"अब चाट बेच रहे हो तो नाम क्यों नहीं बदलवाया? कुल्फी तो तुम्हे देनी ही पड़ेगी।"

"अरे नहीं बदलवाया तो क्या जान लोगे। चाट खाना है तो खाओ नहीं तो मेरा टाइम खोटा मत करो। ग्राहक खड़े हैं।"

"नहीं, खा के मैं कुल्फी ही जाउँगा चाहे कहीं से लाओ। अब गलती तुम्हारी है तो मैं क्यों भुगतूं।"

"अरे पागल है क्या, भाग यहाँ से" चाट वाले को अब गुस्सा आ गया। और बस दोनो मे बहस शुरु हो गई।

कुछ देर तक तो मैं बहस का मजा लेता रहा फिर मुझसे रहा नहीं गया। लड़के को मैने एक तरफ खींचा और कहा - "क्यों उस गरीब को परेशान कर रहे हो यार?"

" अरे साहब मैं कोई जानबूझ कर परेशान नहीं कर रहा हूँ, मैं तो बस परंपरा का पालन कर रहा हूँ. "

" परंपरा का पालन? मैं समझा नहीं?"

"देखिए जनाब हमारे यहाँ एक परंपरा यह भी रही है के जो पढ़ो उसी पर यकीं करो जो देखो सुनो उसे झुठला दो। तो आखिर मैं भी तो यही कर रहा हूँ न?"

"अच्छा! पर बात कुछ समझ नहीं आई।"

शनिवार, 13 नवंबर 2010

यह अपना क्षेत्र नहीं है...

उस दिन की बात है। मैं चौराहे की चाय की दुकान के सामने खड़ा था। इंजीनियरिंग के कुछ छात्र भी वहाँ चाय की चुस्कियाँ मार रहे थे। तभी एक बाइक में दो पुलिस वाले वहाँ आए। एक तो पास की पान की दुकान की तरफ बढ़ गया, दूसरा जिसके हाथ में एक रज़िस्टर था उन लड़कों के पास आया। कुछ क्षण वह खड़ा होकर अपने रज़िस्टर में देखता रहा फिर उन लड़कों से मुख़ातिब होकर कहा- 

"आप लोग कहाँ रहते हैं?"

"साकेत नगर में!" एक ने कहा।

"क्या करते हो?"

"जी, हम लोग स्टुडेँट हैं, बी. ई. कर रहे हैं।" दूसरे ने कुछ हिचकिचाते हुए कहा।

"तो किराये से रहते होगे?"

"जी सर!" लड़को के साथ मैं भी सोच रहा था कि ये सब क्यों पूछा जा रहा है।

"आप लोगों ने पुलिस थाने में अपनी डिटेल्स दर्ज करवायी है?"

"जी..." लड़के एक दुसरे का मुंह देख रहे थे।

"अच्छा आपने अपने मकान मालिक को अपनी फोटो और एड्रेस वगैरह दिया है?"

"हाँ सर" एक लड़के ने धीरे से कहा, बाकी चुप रहे।

"देखिये घबराइये नहीं, आप लोगों को तो पता ही होगा कि हर मकान मालिक के लिए अपने किरायेदार की पूरी जानकारी थाने मे लिखवाना जरूरी होता है। आजकल वारदात बहुत हो रहे हैं न बेटा।" लड़कों ने सर हिलाया।

"लेकिन ज्यादातर मकान मालिक ऐसा करते नहीं है। अब कल को कुछ हुआ तो परेशान तो आपको ही होना पड़ेगा न? पर ये समझते ही नहीं हैं।"

"सही बात है सर।" लड़के सोच रहे होंगे कहाँ से आफ़त गले पड़ गई।

"इसीलिए हम लोग खुद ही घर घर जाकर जानकारी जुटा रहे हैं। और इसमे घबराने की कोई बात नहीं है भई ये आप लोगो की सुरक्षा के लिए ही कर रहे हैं।"

"हाँ सर ये तो है।" एक लड़के ने दांत निपोरे। उस पुलिस वाले को इतने प्यार से समझाते देख मुझे जाने क्यों अच्छा लग रहा था।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ...

रात की ओर अग्रसर शाम। मैं "न्यू मार्केट" में घूम रहा हूँ। पूरा बाज़ार सजा हुआ है। दीवाली की रौनक है। दुकानदारोँ ने दुकान के बाहर भी दुकान लगा रखी है। सारे फ़ुटपाथ पर छोटे बड़े व्यापारियों ने कब्जा कर रखा है। पैदल चलना भी दूभर है। भीड़ भी बहुत ज्यादा है। ऐसा लग रहा है मानो कोई मेला लगा हो। वैसे अतिक्रमण की समस्या तो स्थायी है। बीच बीच मे इन्हे हटाने का अभियान चलता है पर फिर वही हाल हो जाता है। इसका सबसे ज्यादा असर किसी भी रविवार को देखा जा सकता है इस दिन जैसे आधा शहर यहीं आ जाता है और सड़कों और फुटपाथों पर लगी दुकानों के बीच आप सरक सरक कर ही आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन आज तो किसी भी आम रविवार से भी ज्यादा ख़राब हालत है। यही हाल पार्किंग का है, गाड़ी खड़ी करने के लिए जगह पाना किसी जंग के जीतने से कम नहीं है।

मैं बाज़ार के अंदर  हूँ। हर तरफ़ रोशनी और रंगीनियाँ छाई हैं। सारे दुकानदार ग्राहकों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मन करता है सब कुछ खरीद लें। ढ़ेर सारे स्टॉल उन चीज़ों से भरे पड़े हैं जो खास तौर पर दीवाली के समय ही मिलती हैं। इनमे सजावट और पूजन सामग्रियों से लेकर खाने पीने की वस्तुयेँ शामिल हैं। तभी एक बच्चे पर नज़र जाती है जो आती जाती महिलाओं और लड़कियों को रोककर कह रहा है- " दीदी नाड़ा लीजिये, आंटी नाड़ा लीजिये।" बच्चे के हाथ में प्लास्टिक का चौकोर पात्र है जिसमे नाड़े के बंडल हैं। फिर ध्यान जाता है पूरे बाज़ार मे ऐसे कितने ही 10 से 14 साल के बच्चे विभिन्न सामान बेच रहे हैं हैं। सड़क किनारे दुकान फैलाकर या घूम घूम कर बैग, कपड़े, सजावटी चीज़ें, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक आइटम और न जाने क्या क्या ये बेचते हैं। अक्सर इन्हे देखता हूँ और राजेश जोशी की कविता " बच्चे काम पर जा रहे हैं" की पंक्तियां दोहराता हूँ। ये बच्चे शायद काम करने के लिये ही अभिशप्त हैं।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

वापसी: एक अरसे के बाद

एक मुद्दत के बाद इस चिठ्ठे पर कोई पोस्ट कर रहा हूँ। लगभग साढ़े तीन साल के बाद। पर इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मैं पुराना चिट्ठाकार हूँ, दरअसल तब नया-नया चिटठा जगत से परिचित हुआ था तो सोचा मैं  भी चिटठा बना लूँ सो बना लिया। पर कुल जमा चार-पांच पोस्ट तक आकर ही रुक गया सो कायदे से चिट्ठाकार भी न बन पाया। तब कुछ व्यस्तताएँ और चिंताएँ ऐसी थीं कि मेरी प्राथमिकताओं में ब्लॉगिंग बहुत नीचे चला गया था। तो चिट्ठे से एक दूरी सी बन गई जो कि वक्त के साथ बढ़ती गई। फिर कुछ ऐसी भी बातें थीं जिनके चलते ब्लॉगिंग मे मेरी रुचि भी कम हो गई। लिखना भले ही बंद कर दिया हो पर अपने पसंद के चिट्ठों को कभी कभार पढ़ जरूर लेता था। हालाँकि नियमित नहीं रहा। फिर यह हुआ कि चिट्ठा जगत से ही दूर हो गया।

काफी अरसे के बाद एक बार फिर चिट्ठा जगत में प्रविष्ट हुआ। बहुत से बदलाव देखने को मिले। हिन्दी चिट्ठाकारों की संख्या भी कई गुना बढ़ चुकी है। वैसे तो तब भी  कम चिट्ठाकार नहीं थे। ( अफ़सोस हे कि यह भी नहीं कह सकता कि तब से हिंदी चिट्ठाकारी से जुड़ा हूँ जब यह अपने शुरुआती दौर मे था ) कुछ चीज़ें अच्छी लगी तो कुछ बुरी भी लगी। खैर ये चर्चा फिर कभी सही।

तो साहब पिछले कुछ दिनों से फिर से चिट्ठाकारी शुरू करने का मन बना रहा था, शायद अब इसके लिए
थोड़ा समय भी निकाल सकूँ। पहले सोचा नया चिठ्ठा बनाऊं फिर सोचा जब बना बनाया रखा ही है तो क्यों उसी मरे हुए ब्लॉग को फिर जिंदा किया जाए। तो नतीजा आपके सामने है अपने पुराने चिट्ठे को घिस-घिसु के, चमका-धमका के, रंगाई- पुताई कर के फिर से बाज़ार मे उतार दिया। पुराना कबाड़ (पोस्ट और टिप्पणियाँ ) साफ़ नहीं किया ताकि सनद रहे कि हम पहले भी चिट्ठाकारी कर चुके हैं।

अब देखते हैं इस बार ये सिलसिला कहाँ तक जाता है !!!

शुक्रवार, 16 मार्च 2007

नारद पर यह भेदभाव क्यों?

नारद- रखे सबकी खबर। पर क्या नारद जी सबको एक ही नज़र से भी देखते हैं? सोचता तो मैं यही था पर अब दोबारा सोचना पड़ रहा है। क्यों? अजी साहब ऐसा है कि जब भी नारद पर कोई नया पोस्ट एंट्री मारता है तो शीर्षक के बांयी और एक मंजीरा नज़र आता है। (अब उस मंजीरे की जगह क्रिकेट स्टंप्स और बॉल नज़र आ रहे हैं) जबकि कुछ पोस्ट में चिट्ठाकार कि तस्वीर नज़र आती है। मैं सोचता था कि पुराने और उस्ताद चिट्ठाकारों को ही चेहरा दिखाने का अवसर मिलता होगा पर यह भ्रम तब टूटा जब मैंने कुछ बिल्कुल नये चिट्ठाकारों का चेहरा वहाँ देखा। (नाम नहीं लेना चाहता)

तो जनाब मैने सोचना शुरु किया कि मेरे थोबड़े मे क्या बुराई है। अब कोई मुझे बताएगा कि यह किस आधार पर तय किया जाता है कि किसका फोटू दिखाना है और किससे मंजीरा बजवाना है? मेरे हिसाब से तो उन सभी की तस्वीरें दिखनी चाहिये जिन्होने अपने ब्लॉग पर तस्वीर लगा रखी है।

ठीक यही बात शीर्षक के साथ लेख के अंश के बारे में भी कही जा सकती है। कुछ पोस्ट केवल शीर्षक में ही निपटा दिये जाते हैं तो कुछ मे पोस्ट की शुरुआती चंद पंक्तियाँ भी होती है। अब यह कौन तय करता है?

कई बार तो यह भी होता है कि एक ही ब्लॉग पर एक लेखक की तस्वीर और लेख दोनो नज़र आते हैं और दुसरे को खाली शीर्षक से संतोष करता है। उदाहरण के लिये चिट्ठा चर्चा। आप ख़ुद ही देख सकते हैं।

भई अगर नारद सबका है तो सब के साथ एक सा व्यवहार होना चाहिये न। आपका क्या कहना है?