चलिए ये भी ठीक है मैने सोचा और जाकर बैठ गया। मुझे लगा कि वो आदमी खुद ही ध्यान रखेगा कि कौन पहले आया और कौन बाद में और उसी क्रम से लोगों को बुलाता रहेगा। पर काफी देर तक बैठे रहने पर मैने महसूस किया कि इतनी देर में कोई अंदर नहीं गया, हाँ कुछ लोग बाहर आते जरूर दिखे। फिर वो आदमी भी अपनी जगह नहीं था बल्कि इधर उधर हो रहा था। मेरी बैचेनी थोड़ी बढ़ गई। मैं उठकर डॉ. के केबिन के पास गया। वहाँ एक दूसरा बंदा खड़ा था। मैने उसी से पूछा-
"क्यों भाई डॉ. साहब नहीं हैं क्या?"
"हैं न, अंदर हैं।"
"दिखाना है, टाइम लगेगा क्या?"
"दिखाना है तो चले जाओ अंदर"
ये सुनकर तो मेरी बाँछें खिल गई। मुझे लगा कि डॉ. खाली होगा। मैने तुरंत मरीज को आवाज लगायी, आ जाओ, आ जाओ फटाफट। पर जैसे ही उन्हे लेकर मैं अंदर गया वहाँ का दृश्य देखकर ठिठक कर रह गया।
अंदर एक बड़ी सी टेबल रखी थी और उसके पीछे डॉ. बैठा हुआ था। पर मैं न तो डॉ. को देख पा रहा था और न ही टेबल को, क्योंकि उस टेबल के इस और लगभग १५-२० लोगों की भीड़ लगी हुई थी। पहली नज़र में ही समझ आ गया कि ये सब मरीज और उनके परिजन हैं। अब जरा वहाँ का आँखों देखा हाल भी सुनिए-