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शनिवार, 11 दिसंबर 2010

डॉक्टर की दुकान में ग्राहकों की भीड़


पिछले हफ्ते की ही बात है। मेरे एक परिचित को तेज पीठ दर्द की तकलीफ थी। उन्हे लेकर डॉक्टर के पास जाना था, तो उन्ही के बताए एक डॉक्टर के पास गए जिनके बारे में उनका कहना था कि वे शहर के सबसे अच्छे हड्डी रोग विशेषज्ञों में से एक हैं। मैं इन डॉक्टर के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर लगी भीड़ से ये अंदाजा हो गया कि उनकी प्रेक्टिस अच्छी चलती है। अंदर गए तो वेटिंग हाल में भी कुछ लोग बैठे थे। डॉक्टर का केबिन शायद अंदर की तरफ था जहाँ जाने के लिए एक खुला दरवाजा नज़र आ रहा था। वहीं एक कम्पाउंडर नुमा आदमी बैठा था। मैं उसके पास गया और पूछा कि डॉक्टर साहब हैं, उसके हाँ कहने पर मैने अर्ज किया कि दिखाना है आप मरीज का नाम लिख लो। इस पर उसने जानकारी दी कि यहाँ नाम लिखाने की जरूरत नहीं है। आप बैठिए।

चलिए ये भी ठीक है मैने सोचा और जाकर बैठ गया। मुझे लगा कि वो आदमी खुद ही ध्यान रखेगा कि कौन पहले आया और कौन बाद में और उसी क्रम से लोगों को बुलाता रहेगा। पर काफी देर तक बैठे रहने पर मैने महसूस किया कि इतनी देर में कोई अंदर नहीं गया, हाँ कुछ लोग बाहर आते जरूर दिखे। फिर वो आदमी भी अपनी जगह नहीं था बल्कि इधर उधर हो रहा था। मेरी बैचेनी थोड़ी बढ़ गई। मैं उठकर डॉ. के केबिन के पास गया। वहाँ एक दूसरा बंदा खड़ा था। मैने उसी से पूछा-

"क्यों भाई डॉ. साहब नहीं हैं क्या?"

"हैं न, अंदर हैं।"

"दिखाना है, टाइम लगेगा क्या?"

"दिखाना है तो चले जाओ अंदर"

ये सुनकर तो मेरी बाँछें खिल गई। मुझे लगा कि डॉ. खाली होगा। मैने तुरंत मरीज को आवाज लगायी, आ जाओ, आ जाओ फटाफट। पर जैसे ही उन्हे लेकर मैं अंदर गया वहाँ का दृश्य देखकर ठिठक कर रह गया।

अंदर एक बड़ी सी टेबल रखी थी और उसके पीछे डॉ. बैठा हुआ था। पर मैं न तो डॉ. को देख पा रहा था और न ही टेबल को, क्योंकि उस टेबल के इस और लगभग १५-२० लोगों की भीड़ लगी हुई थी। पहली नज़र में ही समझ आ गया कि ये सब मरीज और उनके परिजन हैं। अब जरा वहाँ का आँखों देखा हाल भी सुनिए-