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गुरुवार, 8 मार्च 2007

कबीरा खड़ा स्टेज पर

क्या आपने कभी संत कबीर को देखा है? मैने देखा है। साक्षात! शबद और दोहे गाते हुए और अपनी जीवन कथा सुनाते हुए। मैं बात कर रहा हूँ "शेखर सेन" के सुप्रसिद्ध एक-पात्रीय गीत नाटक "कबीर" की। इस नाटक को देखने की मेरी लम्बे समय से अभिलाषा थी जो पिछले महीने पूरी हुई। स्थान था भोपाल का भारत भवन और अवसर था भारत भवन के रजत जयंती समारोह का।

एक नाट्य प्रेमी होने के नाते मैने भारत भवन में बहुत से नाटकों का मंचन देखा है पर यह नाटक उन खास चुनिंदा नाटकों में से है जिन्होने मेरे हृदय पर अमिट छाप छोड़ी है। इस नाटक को देखना सचमुच एक अविस्मरणीय और दिव्य अनुभव है।

शेखर सेन ने -जो कि एक अच्छे अभिनेता होने के साथ ही एक उम्दा शास्त्रीय गायक भी हैं- अपने अभिनय और गायन के द्वारा कबीर को पुनर्जीवित कर दिया। वे लगभग 2.30 घंटे तक अकेले ही दर्शकों को सम्मोहित करने और बाँधे रखने में सफल हुए। इस प्रस्तुति में उन्होने कबीर के बचपन से लेकर मृत्यु तक कि कथा कबीर के मुख से ही कहलवायी है। कबीर के जीवन से जुड़ी ऐसी बहुत सी बातें मुझे मालूम हुईं जिनसे मैं पहले अनभिज्ञ था। साथ-साथ उन्होने कबीर के ढेर सारे शबद और दोहे इस सुरीले अंदाज़ में गाए कि श्रोता भी झूम उठे। न केवल कबीर बल्कि उनके समकालीन दुसरे संतों के भी कुछ पद उन्होने गाए। कबीर की एक बेटी थी "कमाली" (जिसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी) उसका एक शबद उन्होने बड़ी खूबसूरती से गाया-

सैंया निकस गए मैं न लड़ी थी..

कबीर का एक बेटा भी था- कमाल। उससे जुड़ा एक प्रसंग उन्होने सुनाया। कबीर का प्रसिद्ध दोहा है-

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए

इसे सुनकर कमाल ने भी एक दोहा रचा-

चलती चक्की देखकर दिया कमाल ठठाय
जो कीली से लग गया वो साबुत रह जाय

कबीर ने इस पर कहा कि यूँ तो वह कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया उसे खुद नहीं पता।

शेखर सेन मूलत: छत्तीसगढ़ से हैं। उनके माता-पिता भी ख्यात शास्त्रीय गायक हैं। बचपन से ही वे गायन में नाम कमाते आए हैं। उन्होने "कबीर" के अलावा "तुलसीदास" और "विवेकानंद" भी किए हैं। इन तीनो गीत नाटकों से ही उन्हे राष्ट्रीय स्तर की पहचान मिली। इनकी सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत भवन के इस मंचन से पहले वे इन तीनो नाटकों को मिलाकर 450 मंचन कर चुके थे। वो भी मात्र आठ वर्षों में। जब उन्होने यह शुरु किया था तब लोगो ने उन्हे रोकने और समझाने की कोशिश की थी कि कौन देखेगा इन पुराने चरित्रों को, सच से आजकल किसे सारोकार है। बजाय इसके उन्हे कुछ हास्य नाटक वगैरह करना चाहिये। पर उन्होने अपना निश्चय और मनोबल बनाए रखा और परिणाम आज सामने है। इस संबंध में उनकी यह बात उल्लेखनीय है- "झूठ बिकता है पर सच टिकता है।" (जैसा कि उन्होने मंचन के बाद दर्शकों को बताया)

इस नाटक के बारे में और क्या कहूँ। अभिनय, संवाद, गायन, संगीत, वेश-भूषा, प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था, मंच निर्माण सभी दृष्टि से बेजोड़ है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसके माध्यम से शेखर सेन ने कबीर के संदेश और दर्शन को सफलता पूर्वक अग्रेषित किया है। शायद यही इसकी सफलता का सबसे बड़ा कारण है। कबीर अपने जीवन भर कर्म-काण्ड, पाखण्ड, झूठ, अंधविश्वास, संकीर्णता, धार्मिक वैमनस्य और सांप्रदायिकता से लड़ते रहे। आज के इस युग में हमे कबीर और उनके विचारों की नितांत आवश्यकता है। कबीर को पढ़ने और जीवन में उतारने के लिये जिस सजगता की आवश्यकता है यह नाटक कुछ हद तक उसकी पुर्ति करता है।

मैं उन सभी लोगो से जिन्होने यह नाटक नहीं देखा है यही अनुरोध करूंगा कि यदि अवसर मिले तो इसे अवश्य देखें।

शेखर सेन और उनके नाटकों के बारे में और अधिक जानने के लिये उनकी वेबसाइट पर विज़िट करें - http://www.shekharsen.com/index.htm