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गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

सवाल कुछ न पूछिए

हो गए हैं किस क़दर बेहाल कुछ न पूछिए।
हर तरफ फैला हुआ है जाल कुछ न पूछिए।

उस गाँव तक पक्की सड़क मंजूर तो हो गई,
कितने मगर उसमें लगेंगे साल कुछ न पूछिए।

दो बाल्टी पानी के लिए जंग छिड़ गई,
टैंकर से लगी भीड़ और बवाल कुछ न पूछिए।

बाबू मजे से बैठकर सब खेलते हैं ताश,
दफ्तर में हो गई है हड़ताल कुछ न पूछिए।

चार गुना दाम में बिकने लगे अनाज,
छाया हुआ क्षेत्र में अकाल कुछ न पूछिए।

पक्ष औ' विपक्ष में हुई जम के मारपीट,
दिल्ली है या लखनऊ कि भोपाल कुछ न पूछिए।

इंसान के ही जान की कीमत नहीं रही,
बिकता है यहाँ यूँ तो हर माल कुछ न पूछिए।

जमाने का भी आजकल दस्तूर है 'सोमेश',
जैसा है चलने दीजिए सवाल कुछ न पूछिए।

- सोमेश सक्सेना

रविवार, 26 दिसंबर 2010

फिर सुनाओ यार वो लम्बी कहानी

सर्वप्रथम सभी साथियों और वरिष्ठजनों को नववर्ष 2011 की अग्रिम शुभकामनाएँ... आप सभी के लिए आने वाला यह साल मंगलमय रहे यही कामना करता हूँ आज प्रस्तुत है मेरी एक पुरानी ग़ज़लनुमा रचना। हालांकि मेरे लिए तो यह ग़ज़ल ही है पर उस्तादों के लिए जाने क्या हो। उम्मीद है आप इसकी कमियों से मुझे अवगत कराएँगे।


फिर सुनाओ यार वो लम्बी कहानी
भूल न जाएँ कहीं कल की निशानी

तुम तो जी लोगे मगर उनका भी सोचो
रोज कुआं खोद जो पीते हैं पानी

फूल से ज्यादा उगा रक्खे हैं काँटे
जाने कैसी कर रहे वे बागवानी

आपको लगता है आप हैं फ़रिश्ता
आपको भी हो गई है बदगुमानी

उनको कुछ भी याद अब आता नहीं
हमको बातें याद हैं सारी पुरानी

और लोगो को भले फुसला ही लो
खुद से तुम न कर सकोगे बेईमानी