शनिवार, 1 जुलाई 2017

बदबू (लघुकथा)

उसे ऑफिस जाने के लिए देर हो रही थी। जल्दी से कमरे में ताला लगाकर वह सड़क पर आया। बाहर बारिश हो रही थी। अपना छाता खोलकर वह कीचड़ से बचते हुए सधे कदमों से बस स्टॉप की ओर बढ़ा। तभी उसके कानों में एक आवाज़ आई- "बेटा, मुझे जरा मंदिर तक छोड़ देना", उसने देखा गंदे चीथड़े पहना हुआ वह बूढ़ा भिखारी था जो अक्सर उसे नज़र आता था, कभी मंदिर के सामने तो कभी घरों के सामने भटकता हुआ। मंदिर बस स्टॉप के सामने ही था। "ठीक है, आ जाओ", उसने सोचा बस स्टॉप तक छोड़ दूंगा, वहाँ से वो चला जायेगा।

जैसे ही वह बूढ़ा उसके छाते के नीचे आया उसके नाक में तीखी बदबू का एक झोंका आया... उफ़ ! लगता है महीनों से नहीं नहाया, उसने सोचा और वितृष्णा से मुंह मोड़ लिया। बूढ़ा कमजोर था और थोड़ा लंगड़ा भी रहा था, जिसकी वजह से उसकी चाल बहुत धीमी थी। उसे बदबू की वजह से वैसे ही खीझ हो रही थी, धीमी चाल ने आग में घी का काम किया। "थोड़ा तेज चलो, मुझे देर हो रही है", वह लगभग चिल्ला उठा। "इससे तेज नहीं चल सकता बेटा" बूढ़े ने कराहते हुए कहा। वह चुप रहा और मुंह फेर कर चलता रहा। पर उसे वैसे ही देर हो रही थी, डर था कहीं सामने से ही सिटी बस निकल गई तो फिर अगली बस का इंतजार करना पड़ेगा। दो- तीन सौ मीटर की दूरी उसे मीलों की लग रही थी। आखिर उसका धैर्य जवाब दे गया। "आप किसी और के साथ आ जाना, मुझे देर हो रही है।" यह कह कर वह बूढ़े को वहीँ छोड़कर तेजी से आगे निकल गया।

ऑफिस में काम करते हुए अचानक उसे उस बूढ़े का ध्यान आ गया, और अचानक ही उसका मन ग्लानि से भर गया। मुझे उसे इस तरह छोड़कर नहीं आना चाहिए था। बीमार लग रहा था, बारिश में भीगने से और बीमार न हो जाये। पांच मिनट में भला क्या फर्क पड़ जाता। इतना गुस्सा नहीं करना था, आखिर वह भी हालात का मारा था। कहीं मर न जाए... इन सब ख्यालों से वह विचलित हो गया। पूरे दिन उसे रह रह कर उस बूढ़े का ख्याल आता रहा।

शाम को जैसे ही वह ऑफिस से लौटकर बस से उतरा, सीधे मंदिर की तरफ बढ़ा, वहाँ वह भिखारी बैठकर बदस्तूर भीख मांग रहा था। उसे सही सलामत देखकर उसके जान में जान आ गई। वह घर की ओर लौट चला। पहुँचते पहुँचते उसे उसके देह की गंध याद आ गई, और एक बार फिर मन वितृष्णा से भर उठा... छी, कितनी बुरी बदबू थी, कितना गन्दा रहता है वह। अगर जरा देर और उसके साथ रहता तो बदबू से ही मर जाता... उसे एक उबकाई सी आई, और गला खखारकर उसने सड़क किनारे थूक दिया- आक्थू...

-सोमेश
(नवम्बर 2015 में मेरी फेसबुक वॉल पर प्रकाशित)

शनिवार, 8 मार्च 2014

लडकियाँ खुश हैं (?)

विश्व महिला दिवस पर दो झलकियाँ:

'एक' 
वह लड़की अपने भाई-बहनों में सबसे होशियार थी. बचपन से पढाई में अव्वल थी. नृत्य, संगीत और पेंटिंग आदि में भी रूचि रखती थी. सभी को उम्मीद थी कि बड़ी होकर वह बहुत नाम कमाएगी. अच्छा करियर बनाएगी. ग्रेजुएशन होते ही उसकी शादी हो गयी. उसका पति एक बड़े शहर में, एक बड़ी कंपनी में काम करता है. बहुत अच्छे पैसे कमाता है. शादी के कुछ साल बाद ही पति ने एक फ्लैट खरीद लिया, कार, ए. सी. जैसी तमाम सुख-सुविधाएँ इकट्ठी कर लीं. अब वह हाउस वाइफ है और बच्चों को बड़ा कर रही है. अपनी सहेलियों के साथ किटी पार्टीज करती है. पैसों का भरपूर उपयोग करती है. पर अब उसकी सारी इच्छाएँ पति के अधीन हैं-

"इनको मेरा डांस करना पसंद नहीं है इसलिए अब डांस नहीं करती."
"इनको मेरा गाना गाना पसंद नहीं है इसलिए गाना नहीं गाती."
"इनको मेरा जींस पहनना पसंद नहीं है, वैसे भी मुझे साड़ी पहनना ही अच्छा लगता है."
"आप लोग जाओ फिल्म देखने मुझे इनसे पूछना पड़ेगा."
 "नहीं, शादी में मैं नहीं आ पाऊँगी. इनके पास समय नहीं है और अकेले ये मुझे आने नहीं  देते."

रोज पति और बच्चों की पसंद का खाना बनाते हुए वह सोचती है कि उसकी लाइफ कितनी अच्छी है. टी. वी. पर महिला उत्पीडन और घरेलु हिंसा की ख़बरें देखकर सोचती है कि शुक्र है मुझे इन सबसे नहीं गुजरना पड़ा.

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'दो'

वह मेरे एक मित्र की रिश्तेदार थी. एक छोटे से कस्बे से इस बड़े शहर में पढ़ने आयी थी. एक बार संयोग से उससे मुलाक़ात हुई. बातों बातों में उसने कहा कि उसने भी फेसबुक प्रोफाइल बनाया था पर 'भैया'  ने कहा डिलीट कर दो तो  डिलीट कर दिया. फिर और भी बातें निकलती गयीं भैया के बारे में.

"मुझे तो लम्बे बाल ज्यादा पसंद नहीं है पर भैया कटवाने नहीं देते."
"मेरे आने जाने का टिकट भैया ही करके देते हैं."
"भैया बोलते हैं होस्टल में मत रहना. वहां का माहौल अच्छा नहीं होता"
"भैया मेरी पढाई का बहुत ध्यान रखते हैं, कुछ भी होता है तो उन्ही से कहती हूँ."
"मेरे लिए राशन और साबुन वगैरह भैया ही ला देते हैं, महीने में दो तीन बार यहाँ आकर देख लेते हैं कुछ जरुरत तो नहीं है. फ़ालतू में फ़िज़ूल खर्च करने को मना करते हैं."

यह सब कहते समय उसके चेहरे के भावों और बातों से कहीं ऐसा नहीं लगा कि उसे अपने भैया से कोई शिकायत है. उल्टा भैया की तारीफ़ ही करती रही.  उसके भैया के बारे में मेरी उत्सुकता बढ़ गयी थी. बाहर आते ही मैंने मित्र से इस बारे में पूछा. उसने बताया कि उसका "भैया" उससे दो साल छोटा है और दसवीं में दो बार फ़ैल हो चूका है.

सुन कर मैं अवाक रह गया.

(Painting: Three Girls by Amrita Sher-Gil)

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

कहीं तो होगी वो दुनिया

हीं तो होगी वो, दुनिया जहाँ तू मेरे साथ है....
जहाँ मैं, जहाँ तू और जहाँ बस तेरे-मेरे ज़ज्बात हैं...

लड़के ने गुनगुनाना शुरू किया ही था कि लड़की ने टोक दिया- "यह गाना मत गाओ, यह तुम्हारे लिए नहीं है, किसी और के लिए है."

"मतलब..."

"मतलब यह कि यह गाना सुनकर मुझे किसी और की याद आती है,"

"तुम अभी तक भूल नहीं पायी उसे?"

"कोशिश तो कर रही हूँ न, इतना आसान नहीं है तुम भी जानते हो... जब उसने मुझे छोड़कर किसी और से शादी की थी तो मैं बस यही गाना सुनती रहती थी और रोती रहती थी" कहते- कहते लड़की सच में रुआंसी हो गयी.

लड़के ने लड़की के हाथ को अपने हाथ में लिया और कहा- "चिंता मत करो, अब मैं हूँ न तुम्हारी ज़िन्दगी में. भूल जाओगी उसे धीरे- धीरे."

लड़की ने मुस्कराने की कोशिश की, "हाँ, शायद भगवान ने तुम्हे मेरे लिए ही बनाया है. पर प्रोमिस करो आज के बाद तुम मेरे सामने यह गाना नहीं गाओगे."

"ठीक है जान."

********

"सुनो, मुझे तुमसे कुछ कहना है." लड़की ने बहुत गंभीरता से कहा.

"क्या?" लड़के का दिल जाने किस डर से तेज़ी से धड़कने लगा.

 "तुम मुझे भूल जाओ, अब न कभी मुझसे फ़ोन पर बात करना और न कभी मुझसे मिलने की कोशिश करना."  लड़की ने आँखें चुराते हुए कहा.

"पर क्यों, ऐसा क्या हो गया अचानक?" लड़के को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.

"मैं खुद को और धोखा नहीं दे सकती अब. सच तो यह है कि मैं उसे आज तक नहीं भूल पायी और न कभी भूल पाउंगी."

"क्या?"

"हाँ, मैं हमेशा तुम्हारे अन्दर उसे ही खोजती रही हूँ. तुम्हारी हर बात, हर चीज़ मुझे उसी की याद दिलाती है. ऐसा लगता है तुम नहीं वो मेरे साथ है."

"पर इसमें मेरी क्या गलती है? मैं तो उसे जानता भी नहीं. कभी मिला भी नहीं. मैंने तो हमेशा यही कोशिश की है कि तुम उसे भूल जाओ."

"गलती तुम्हारी नहीं मेरी है. मुझे लगा था कि कोई और मेरी ज़िन्दगी में आएगा तो शायद उसे भूल जाउंगी. पर सच तो यह है कि अब शायद मैं किसी और से प्यार नहीं कर पाउंगी."

"ऐसा क्यों सोचती हो, तुम जरुर भूल जाओगी. अभी दिन ही कितने हुए हैं?"

"इतना कम समय भी नहीं हुआ है. पता है आज भी मेरे पर्स में उसकी फोटो है, वो सारी चीज़े जो उसने मुझे गिफ्ट की थी मैंने आजतक संभाल कर रखी हैं. रोज उन्हें उलट पुलट कर देखती हूँ. वो सारे लम्हे याद करती रहती हूँ जो मैंने उसके साथ गुजारे थे."

लड़का अवाक था,कुछ नहीं बोल पा रहा था.

लड़की ने बोलना जारी रखा - "जिस तरह उसने मुझे ठुकराया मुझे उससे बेहद नफ़रत होनी चाहिए. मैं करती भी हूँ.... करना चाहती हूँ.... लेकिन शायद... शायद अब भी उससे बहुत प्यार करती हूँ. मेरे दिल के किसी कोने मैं अब भी एक उम्मीद है कि वो वापस मेरे पास आएगा. पर मैं जानती हूँ कि यह असंभव है." लड़की के आँखों में आंसू थे और होंठो पर फीकी सी मुस्कान.

"पर मेरा क्या होगा? याद है तुम ही मुझे अपनी ज़िन्दगी में लेकर आई हो और जब मैं तुम्हे इतना प्यार करने लगा हूँ कि तुम्हारे बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता तब तुम मुझे दूर जाने को कह रही हो."

"आय एम सॉरी फॉर देट, पर मैं एक झूठ के सहारे नहीं जी सकती. तुम एक अच्छे लड़के हो पर मैं तुमसे प्यार नहीं करती हूँ. बहुत सोचने के बाद मैंने यह जाना है."

"एक बार फिर सोच लो." अब लड़के की आँखों में भी आंसू थे.

"यह मेरा फ़ाइनल डिसिज़न है. मैं उम्मीद करती हूँ कि तुम्हे मुझसे भी अच्छी कोई लड़की मिल जाएगी जो तुम्हे बहुत खुश रखेगी."

"तो क्या हम दोस्त भी नहीं रह सकते?

"नहीं !"

"कभी भी अगर तुम्हारे विचार बदलें या मेरी कोई जरुरत हो तो प्लीज मुझे फोन करने में जरा भी नहीं हिचकिचाना." लड़के की आवाज़ भारी हो गयी थी

"प्लीज ऐसी कोई उम्मीद मत रखो. यह हमारी आख़िरी मुलाक़ात है और आज के बाद हम कभी बात भी नहीं करेंगे."

********

कहीं तो होगी वो, दुनिया जहाँ तू मेरे साथ है...

अभी गाना बजना शुरू ही हुआ था कि लड़का चीख पड़ा-  "बंद कर इसे"

"अरे, क्या हुआ?" उसके दोस्त ने पूछा.

"प्लीज यार कोई और गाना सुन ले. यह गाना सुनकर मुझे किसी की याद आती है...."
 

रविवार, 24 नवंबर 2013

एक नयी शुरुआत

कोई सात साल पहले मैं हिंदी ब्लॉग जगत से परिचित हुआ था। पढ़कर खुद भी ब्लॉगिंग करने की इच्छा हुई तो मैंने भी ब्लॉग बना लिया। तब कबीर का एक पद याद आया- 'साधो सबद साधना कीजे' बस मैंने ब्लॉग का नाम रख लिया -"शब्द साधना"। नाम तो रख लिया पर साधना जैसा कुछ भी नहीं था। यह जल्दी ही साबित भी हो गया जब मैंने साल भर के अंदर ही ब्लॉगिंग बंद कर दी। कुछ साल बाद मैंने पुनः ब्लॉगिंग शुरू की। इस बार कुछ ज्यादा समय तक सक्रिय रहा पर उसके बाद फिर बंद। हालत यह है कि पिछले लगभग तीन साल से कोई पोस्ट नहीं लिखी। इस बीच कई बार सोचा कि कुछ लिखूं पर हर बार टलता रहा। लम्बे समय तक पोस्ट लंबित रहने के बाद मैंने इस ब्लॉग को ही हाईड कर दिया। आखिर अब जाकर मैंने तय किया कि फिर से ब्लॉगिंग शुरू की जाये। तो लीजिये कर दी एक नयी शुरुआत।

चूँकि मैं न तो शब्दों का धनी हूँ और न ही कहीं से साधक हूँ इसलिए सबसे पहले तो मैंने इसका नाम शब्द साधना बदलने का निर्णय लिया। नाम रखते समय जो गलती हुई थी उसे सुधारना भी तो जरुरी है -देर से ही सही। (वैसे भी किसी ब्लॉगर ने मुझसे कहा था कि इस नाम से लगता है किसी बड़े साहित्यिक का ब्लॉग है, एक अन्य ब्लॉगर ने कहा कि बड़ा भारी भरकम नाम है लगता है जैसे कम से कम पचास साल के आदमी का हो।) अब लेखन में रूचि होने के बावजूद ब्लॉग लेखन तो मैं ठीक से कर नहीं पाया, न तो नियमित रूप से ब्लॉग लिखता हूँ और न ही दुसरे ब्लॉग्स पर टिप्पणी करता हूँ इसलिए मैं खुद को ब्लॉगर के बजाय "लगभग ब्लॉगर" मानता हूँ। बस इसलिए ब्लॉग का नाम भी रख दिया "लगभग ब्लॉग", वैसे भी जिस ब्लॉग पर छह साल में तीस पोस्ट भी न हों उसे ब्लॉग के बजाय लगभग ब्लॉग कहना ही उचित होगा। नाम बदलने के साथ मैंने इसमें थोड़े बहुत बदलाव भी कर दिए। बहुत से अनावश्यक से विजेट्स हटा दिए और कुछ पोस्ट भी डिलिट कर दिए जो मुझे अब फालतू लगे।

बहुत से लोगो ने मुझसे पूछा कि मैंने ब्लॉग लिखना बंद क्यों किया? दरअसल इसके बहुत से कारण हैं। एक तो यह कि तब कुछ व्यस्तताओं के चलते अधिक समय ब्लॉग को नहीं दे पाया। काफी समय तक इंटरनेट और कंप्यूटर कि अनुपलब्धता भी रही। फिर स्वभाव से ही आलसी हूँ तो लिखने मैं भी आलस करता रहा, और मुझमें इतनी प्रतिभा भी नहीं है कि निरंतर सृजन करता रहूँ। एक कारण यह भी है कि हिंदी ब्लॉग जगत से मेरा मन भी कुछ उचट सा गया था। यहाँ का चलन कि टिप्पणियों कि संख्या ही ब्लॉग कि लोकप्रियता और गुणवत्ता का प्रमाण माना जाता है, मुझे निराश सा करता रहा। बहुत से ऐसे ब्लॉग मिले जो बिलकुल भी स्तरीय और पठनीय नहीं हैं पर उनमें कमेंट्स कि लाइन लगी होती है। कमेंट के बदले कमेंट की परिपाटी ने हिंदी ब्लॉग का बहुत नुक्सान किया है। पर जैसा मैंने कहा कि यह एकमात्र कारण नहीं है। बहुत से बेहतरीन ब्लॉग्स भी मुझे पढ़ने को मिले, पर ऐसे ब्लॉग्स का प्रतिशत बहुत कम है। बाद में मैं फेसबुक पर थोडा सक्रिय हो गया और वहाँ विचार व्यक्त करना ब्लॉग से ज्यादा आसान और सुविधाजनक है इसलिए भी ब्लॉग पर लिखना टलता गया।

अब ब्लॉग तो मैंने फिर से शुरू कर दिया है मगर इसे नियमित रूप से कर पाउँगा इसमें मुझे गहरा संदेह है। कारण वही सब है जो मैंने ऊपर लिखे हैं। इसलिए इस बार मैंने खुद के लिए दो नियम बनाये हैं -
  1. कोई भी पोस्ट तभी लिखूंगा जब वास्तव में लिखने के लिए मेरे पास कुछ हो। केवल पोस्ट्स की संख्या या नियमितता बढ़ाने के लिए कभी नहीं लिखूंगा, चाहे दो पोस्ट्स के बीच कितना भी समय अंतराल हो।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

उल्टा है जमाना उल्टे चलो

एक थे बाबाजी। फक्कड़ टाइप के थे, जंगल में रहते थे। इनका नियम था कि रोज सुबह उठते ही डटकर भोजन करते थे। इसके बाद स्नान करते थे फिर दातुन आदि करते थे और उसके बाद शौच निवारण के लिए जाया करते थे। किसी ने पूछा महाराज सब तो पहले नित्य कर्म निपटाते हैं फिर स्नान करके भोजन ग्रहण करते हैं तो आप ये उलटा क्रम क्यों अपनाए हुए हैं? बाबा जी ने जवाब दिया -"भाई ये सारे नियम तो लोगों के बनाए हैं हम क्यों इन्हें अपनाएँ? हम तो अपना नियम खुद ही बनाते हैं, और वैसे भी जब ज़माना ही उल्टा है तो उल्टे चलने में ही भलाई है।"

ये तो था "अवधड़ बाबा का अवधड़ ज्ञान, पहले भोजन फिर स्नान" पर मैं सोच रहा हूँ की ज़माना तो सचमुच उल्टा ही है तो क्यों न कभी कभी उल्टा ही चलकर देखा जाए। आखिर औरों से कुछ हटकर तो होना ही चाहिए।

मसलन जैसे यदि कभी आप 'नो पार्किंग' में गाड़ी खड़ी कर दें तो पुलिस वाला आएगा गाड़ी उठा ले जाएगा या चालान काट देगा। आप आयेंगे, मिन्नतें करेंगे और पैसे देकर अपनी गाड़ी छुडायेंगे। इससे तो बेहतर है कि जाते ही पहले पुलिस वाले को सौ का नोट पकड़ाओ और शान से अपनी गाड़ी नो पार्किंग में टिका दो।

या पहले अपनी बीवी को कोई अच्छा सा तोहफा दो, आठ- दस बार उससे माफी मांगो और फिर जमकर झगड़ा करो। जो बीवी से झगड़ने के बाद करना है वो पहले ही कर लो।

ब्लॉग जगत में भी ये उल्टा चक्कर चलाया जा सकता है. जैसे कि-

# लोग टिप्पणी के बाद अपना लिंक छोड़ते हैं तो क्यों न ये किया जाए कि पहले तो अपने चार पांच लिंक टिकाएं जाएं फिर उसके नीचे एक लाइन की टिप्पणी चिपका दी जाए।

# हम पहले पोस्ट पढ़ते है ( या देखते हैं) फिर टिप्पणी देते हैं कभी यही करें कि पोस्ट आने से पहले ही टिप्पणी दे डालें. कुछ इस तरह-

आदरणीय/ प्रिय ............ जी आप कल/ परसों/ नरसों जो पोस्ट करने वाले हैं वह बहुत उम्दा है। मुझे बहुत ही अच्छा लगेगा। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए मेरी अग्रिम बधाईयाँ स्वीकार करें। धन्यवाद।
( वैसे भी लिखना तो यही है और पोस्ट पढ़ना किसने है ) :)

तरीके और भी हो सकते हैं। आप सोचिये और तब तक मुल्ला नसरुद्दीन का एक किस्सा ही सुन लीजिये-

शनिवार, 5 मार्च 2011

तेरा क्या और मेरा क्या?

अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन में ऐसे अनेक कार्यक्रम आया करते थे जिन्हें याद करके किसी का भी नॉस्टेलजिक हो जाना स्वाभाविक है मेरा भी बचपन और लड़कपन दूरदर्शन देखते हुए गुजरा है. ऐसे अनेक कार्यक्रम, धारावाहिक, शोज़, फ़िल्में, विज्ञापन इत्यादि हैं जो मुझे फिर उसी दौर में ले जाते हैं इनका रोमांच ही अलग है ऐसा ही एक कार्यक्रम था जो बच्चों के लिए आया करता था, हालांकि बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं था, इसका नाम था 'टर रम टू' शायद आपको याद यह याद हो इसके प्रमुख पात्र थे नट्टू, हिसाबी, कटोरी, आज़ाद इत्यादि छोटी छोटी रोचक कहानियों और मजेदार संवादों के द्वारा इसमें बच्चों को गणित, सामान्य ज्ञान, अक्षर ज्ञान, नैतिक शिक्षा आदि सिखाया जाता था खेल खेल में सीखो के अंदाज में मुझे टर रम टू बहुत पसंद था हालांकि जिस आयुसमूह के बच्चों के लिए इसे बनाया गया होगा मैं उससे बड़ा ही था


पर आज इसे याद करने का कारण दूसरा है टर रम टू का एक टाइटल गीत भी था जिसके बोल थे - 'ये है टर रम टू रे भैया ये है टर रम टू' इसी गीत का एक अंतरा है जो पिछले कई सालों से मेरे जेहन में रह रह कर गूंजता रहता है वो कुछ ऐसा है-

यहाँ तेरा तो तेरा ही है...
और मेरा भी मेरा ही है...
पर तेरा भी मेरा ही है...
और मेरा भी तेरा ही है...
तो तेरा क्या और मेरा क्या...?