प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है मनुष्य। और आज यही मनुष्य प्रकृति को नष्ट किये जा रहा है। अंधाधुंध पेड़ों की कटाई, प्रदुषण, पानी का अपव्यय, जैव चक्र में असंतुलन यह सब मानव ही तो कर रहे हैं। इन सबके दूरगामी परिणामों से परिचित होते हुए भी हम कहाँ बाज आ रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग ही हैं जो इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं, पर कई बार हम चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं। केवल बेबसी से देखते ही रह जाते हैं। ऐसी ही बेबसी की स्थिति में मैने यह कविता लिखी थी, जो आप सभी सुधिजन के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। चाहें तो इसे नज़्म भी कहा जा सकता है क्योंकि मैने इसे इसी शक्ल में लिखने की कोशिश की है। इस रचना की कमियों की तरफ़ आप ध्यान देंगे और मुझे अवगत कराएंगे इस उम्मीद के साथ यहाँ दे रहा हूँ।
वो जो एक पेड़ था
मैं उस पेड़ को कटने से बचा न सका
वो जो एक कर्ज था उसे मैं चुका न सका
वो पेड़ जो उस बंगले के आँगन में खड़ा था
इशारे करके मुझे धीरे से बुलाता था
कभी छूकर नहीं देखा था मैने उसको
फिर भी एक रिश्ता था कोई हममें
ऐसा लगता था कि कोई पुराना साथी है
जो कि कई मुद्दतों का बिछुड़ा हो
उस नीम, उस पीपल या उस बरगद की तरह
जिनकी बाहोँ में था बचपन गुजरा
और उस दिन मैने वहाँ देखा हत्यारों को
साथ अपने वे हथियार लेके आए थे
वे उस पेड़ के ही खून के प्यासे थे
जान लेने को उसकी अमादा थे
मेरे दोस्त ने तब मुझको ही पुकारा था
उसकी आवाज़ में, चेहरे में एक दर्द सा था
घबरा गया था उसको देखकर मैं भी तो
कुछ तो करना है मुझे मैने ये सोचा था
बंगले के मालिक से मैं मिलने तो गया
बात उससे मगर अपनी मनवा ना सका
वो ऊंचे महलों का और मैं जमीं का था
शायद यही खौफ़ मेरे दिल मैं था
मैं डर गया था उससे नहीं लड़ पाया
और उस पेड़ को यूँ ही कट जाने दिया
देखता रहा उसके टुकड़ों के टुकड़े होते
कितना कायर था कि कुछ कर भी न सका
हाँ एक कर्ज ही तो था जिसे चुका न सका
कि उस पेड़ को कटने से भी बचा न सका
- सोमेश सक्सेना
वो जो एक पेड़ था
मैं उस पेड़ को कटने से बचा न सका
वो जो एक कर्ज था उसे मैं चुका न सका
वो पेड़ जो उस बंगले के आँगन में खड़ा था
इशारे करके मुझे धीरे से बुलाता था
कभी छूकर नहीं देखा था मैने उसको
फिर भी एक रिश्ता था कोई हममें
ऐसा लगता था कि कोई पुराना साथी है
जो कि कई मुद्दतों का बिछुड़ा हो
उस नीम, उस पीपल या उस बरगद की तरह
जिनकी बाहोँ में था बचपन गुजरा
और उस दिन मैने वहाँ देखा हत्यारों को
साथ अपने वे हथियार लेके आए थे
वे उस पेड़ के ही खून के प्यासे थे
जान लेने को उसकी अमादा थे
मेरे दोस्त ने तब मुझको ही पुकारा था
उसकी आवाज़ में, चेहरे में एक दर्द सा था
घबरा गया था उसको देखकर मैं भी तो
कुछ तो करना है मुझे मैने ये सोचा था
बंगले के मालिक से मैं मिलने तो गया
बात उससे मगर अपनी मनवा ना सका
वो ऊंचे महलों का और मैं जमीं का था
शायद यही खौफ़ मेरे दिल मैं था
मैं डर गया था उससे नहीं लड़ पाया
और उस पेड़ को यूँ ही कट जाने दिया
देखता रहा उसके टुकड़ों के टुकड़े होते
कितना कायर था कि कुछ कर भी न सका
हाँ एक कर्ज ही तो था जिसे चुका न सका
कि उस पेड़ को कटने से भी बचा न सका
- सोमेश सक्सेना
very good poetry. nice work.
जवाब देंहटाएंएक बहुत कोमल और सुंदर कविता. बधाई.
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण कविता.... अच्छी लगी :)
जवाब देंहटाएंअच्छा विषय और अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंपर कही कही पर कुछ जमा नही।
इस आप आलोचना या आक्षेप न समझे। क्याकिं कहीं कही पर प्रवाह की कमी दिख रही है। क्योकि मुझे लग रहा है कि कुछ शब्दों का हेर फेर कर के बिना कविता का भाव बदले इसे प्रवाहमय किया जा सकता था।
सुंदर भावपूर्ण कविता के लिये बधाई..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और विचारने योग्य कविता लिखी आपने
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख व उससे भी सुन्दर कविता ! बधाई !
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
"वो जो एक पेड था" काफी सुन्दर व भावपूर्ण रचना हॆ.आपका जीवन परिचय भी पढा,आपकी ऒर मेरी रूचियों में काफी समानता हॆ.कभी मेरे "नया घर" पर भी आना.
जवाब देंहटाएंnice poems and really nice blog somesh... keep up the good work. :)
जवाब देंहटाएंसच सोमेश मन को छुआ है तुमने .... इस कोमल भाव भरी रचना के लिए आप बद्धाई के पात्र हैं
जवाब देंहटाएंभाई सोमेश, ब्लॉग अच्छा है। अब, आलोचना क्या करें, बस, थोड़ा रेगुलरली पोस्ट करते रहिये। By the way, ऐसा लगता है कि कभी कहीं मिले हैं। शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंऐसे काम नहीं चलेगा सक्सेना साहेब /अप्रैल ,मई ,जून .जुलाई .अगस्त ,सितम्बर और ये आधा अक्टूबर /जब शब्द साधना है तो शब्द साधना करो /साधना ऐसे नहीं होती की एक दिन करली और दस दिन की छुट्टी /अगला लेख तुंरत पढने के इंतज़ार में आपका ...सिर्फ़ आपका ......केवल आपका .....मात्र आपका ??
जवाब देंहटाएंpratham bar padha maza aa gaya navinata laye.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दोस्त हौंसला अफजाई के लिए ...कविता को ले के लोगों का रुझान कम नहीं हुआ है...क्योंकि जब तक ज़िन्दगी रहेगी..कविताई भी रहेगी कैसे ना कैसे...हाँ...मैं ब्लॉग की दुनिया में कम सक्रिय हूँ...बस जो कविता आती है उसे ब्लॉग पे लिख देता हूँ....बाकी कभी कभार ही सही....किसी को कवितायें अच्छी लगती हैं तो मुझे भी अच्छा लगता है..
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है...पेड़ कटने का दर्द ..शब्दों में उतर आया है.
जवाब देंहटाएंtouched deep in heart.
जवाब देंहटाएंअच्छी अभिव्यक्ति।
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