मंगलवार, 20 मार्च 2007

भारत २० वर्ष बाद - एक स्वप्न

इससे पहले कि आप इसे पढ़ें मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह मेरी कल्पना नहीं है। लगभग दो साल पहले मेरे मेल मे यह मैसेज आया था। जिसने मुझे भेजा था उसे किसी और ने फारवर्ड किया था, उस फारवर्ड करने वाले को किसी और ने किया था। इस तरह फारवर्डिंग का लम्बा सिलसिला था इसलिये यह बताना लगभग असम्मभव है कि इसे किसने लिखा था। मुझे अच्छा लगा था इसलिये यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ। उक्त लेख अंग्रेजी में था मैने सिर्फ़ इतना किया है कि इसे हिन्दी में अनुदित कर दिया है। इसके अतिरिक्त यथास्थान कुछ परिवर्तन भी किये हैं। यदि आपको यह पसंद आये तो उस अन्जान लेखक को धन्यवाद करें, पसंद न आये तो मुझे कोसे कि कहाँ - कहाँ से कूड़ा-कचरा ढूढ़ लाता है।
भारत २० वर्ष बाद - एक स्वप्न वार्तालाप
वर्ष 2027
IBM, USA में दो अमेरिकी
अलेक्स: हेलो मेक कैसे हो? कल ऑफिस क्यों नहीं आए थे?
मेक: हाय अलेक्स, कल मैं भारत का वीज़ा लेने के लिये भारतीय दूतावास गया था।
अलेक्स: सचमुच! क्या हुआ? मैने सुना है आजकल यह बहुत मुश्किल है।
मेक: हाँ है तो पर मैने किसी तरह प्राप्त कर लिया।
अलेक्स: कितना वक़्त लगा?
मेक: मत पूछो यार, बहुत लम्बी लाइन लगी थी। बिल गेट्स मेरे आगे खड़ा था और उन लोगो ने उसे बहुत परेशान किया। इसीलिये इतना समय लगा। छः घंटे मैं खड़ा रहा।
अलेक्स: सचमुच, भारत में USA का वीज़ा लेने में एक घंटे से अधिक नहीं लगता।
मेक: हाँ, पर ऐसा इसलिये क्योंकि भारत से भला कौन यहाँ आना चाहेगा। उनका आर्थिक ढांचा दिनो-दिन मजबूत होता जा रहा है।
अलेक्स: तो कब जा रहे हो तुम?
मेक: जैसे ही मुझे भारत की अपने कम्पनी से टिकिट मिल जाएंगे तुरंत निकल जाउंगा। और पता है मुझे इंडियन एअरलाइंस मे यात्रा करने का अवसर मिल रहा है, ये एक सपने के सच होने जैसा है।
अलेक्स: तुम वहाँ कितने दिन रूकने वाले हो?
मेक: कितने दिन से तुम्हारा क्या मतलब है? मैं तो वहीं सैटल होना चाहता हूँ। मेरी कम्पनी ने मुझसे वादा किया है कि वो मुझे हरा पत्र (Green Card) दिलवाएगी।
अलेक्स: बहुत भाग्यशाली हो, भारत में हरा पत्र पाना बहुत मुश्किल है।
मेक: हाँ है तो, इसीलिये मैं वहाँ किसी भारतीय लड़की से शादी करने की सोच रहा हूँ।
अलेक्स: पर चेन्नई, बंगलुरु, मुम्बई जैसे शहरों में तुम्हे बहुत सी अमेरिकी लड़कियाँ मिल जाएंगी।
मेक: पर मैं भारतीय लड़कियों को पसंद करता हूँ क्योंकि वे ख़ूबसूरत और सुसंस्कृत होती हैं।
अलेक्स: तुम्हे कहाँ से ऑफर मिला? चेन्नई से?
मेक: हाँ, वेतन बहुत अच्छा है पर बहुत महंगा शहर है। एक सिंगल रूम का एक दिन का न्यूनतम किराया है 1000/- रु०
अलेक्स: बाप रे! हम अमेरिकी लोगो के लिये तो ये बहुत महंगा है क्योंकि Rs 1/- = $ 100 हे भगवान। बेंगलुरू और मुम्बई कैसे हैं?
मेक: कह नहीं सकता। पर इससे कम क्या होंगे?
अलेक्स: मैने सुना है कि सभी भारतीयों के पास पर्सनल रोबोट्स होते हैं?
मेक: तुम 5ooo/- रु० में एक BMW कार ले सकते हो। रु० 7500/- से भी कम मे रोबोट।
अलेक्स: वैसे तुम्हारा क्लाइंट कौन है?
मेक: अयंगर एन्ड अयंगर एसोसिएट्स, एक पूर्ण भारतीय कम्पनी। साफ्ट्वेयर के क्षेत्र मे इसकी सानी नहीं है।
अलेक्स: बड़े भाग्यशाली हो कि एक भारतीय कम्पनी में काम करने का मौका मिल रहा है। बड़े ही सुव्यवस्थित होते हैं और वेतन भी अच्छा देते हैं। हमारी अमेरिकी कम्पनियों से तो कहीं अच्छी हैं
अभी कुछ दिन पहले ही मेरा एक दोस्त अपनी छुट्टियाँ बिताने ’बिहार’ गया था, जो भारत की सबसे ज्यादा सुरक्षित और रहने लायक जगह है, बल्कि शायद दुनिया की। वहाँ आपको पूरी आज़ादी होती है। आप जो चाहे कर सकते हैं। कोई डर नहीं है। मैं हमेशा चकित रहता हूँ कि उस प्रदेश ने इतनी अच्छी व्यवस्था कैसे बना कर रखी है।
मेक: बिल्कुल, तुम सच कह रहे हो। उम्मीद है अमेरिका भी उनके पदचिन्हों पर चलेगा।
अलेक्स: तुम्हे वहाँ भाषा की कोई दिक्कत तो नहीं आएगी न?
मेक: बिल्कुल भी नहीं, मै न्यूयार्क के अपने स्कूल के दिनो से ही हिन्दी को फर्स्ट लेंग्वेज के रूप में पढ़ रहा हूँ। चुनने से पहले उन्होने मेरी हिन्दी की परीक्षा भी ली थी। और TOHIL ( Test of Hindi as International Language) में मेरे शत प्रतिशत स्कोर से वे बहुत प्रभावित हुए।
क्या ये स्वप्न कभी सच हो सकता है ? ये हम सब पर निर्भर करता है। एक नये भारत के लिये शुभकामनाएँ - सोमेश सक्सेना

शुक्रवार, 16 मार्च 2007

नारद पर यह भेदभाव क्यों?

नारद- रखे सबकी खबर। पर क्या नारद जी सबको एक ही नज़र से भी देखते हैं? सोचता तो मैं यही था पर अब दोबारा सोचना पड़ रहा है। क्यों? अजी साहब ऐसा है कि जब भी नारद पर कोई नया पोस्ट एंट्री मारता है तो शीर्षक के बांयी और एक मंजीरा नज़र आता है। (अब उस मंजीरे की जगह क्रिकेट स्टंप्स और बॉल नज़र आ रहे हैं) जबकि कुछ पोस्ट में चिट्ठाकार कि तस्वीर नज़र आती है। मैं सोचता था कि पुराने और उस्ताद चिट्ठाकारों को ही चेहरा दिखाने का अवसर मिलता होगा पर यह भ्रम तब टूटा जब मैंने कुछ बिल्कुल नये चिट्ठाकारों का चेहरा वहाँ देखा। (नाम नहीं लेना चाहता)

तो जनाब मैने सोचना शुरु किया कि मेरे थोबड़े मे क्या बुराई है। अब कोई मुझे बताएगा कि यह किस आधार पर तय किया जाता है कि किसका फोटू दिखाना है और किससे मंजीरा बजवाना है? मेरे हिसाब से तो उन सभी की तस्वीरें दिखनी चाहिये जिन्होने अपने ब्लॉग पर तस्वीर लगा रखी है।

ठीक यही बात शीर्षक के साथ लेख के अंश के बारे में भी कही जा सकती है। कुछ पोस्ट केवल शीर्षक में ही निपटा दिये जाते हैं तो कुछ मे पोस्ट की शुरुआती चंद पंक्तियाँ भी होती है। अब यह कौन तय करता है?

कई बार तो यह भी होता है कि एक ही ब्लॉग पर एक लेखक की तस्वीर और लेख दोनो नज़र आते हैं और दुसरे को खाली शीर्षक से संतोष करता है। उदाहरण के लिये चिट्ठा चर्चा। आप ख़ुद ही देख सकते हैं।

भई अगर नारद सबका है तो सब के साथ एक सा व्यवहार होना चाहिये न। आपका क्या कहना है?

गुरुवार, 8 मार्च 2007

कबीरा खड़ा स्टेज पर

क्या आपने कभी संत कबीर को देखा है? मैने देखा है। साक्षात! शबद और दोहे गाते हुए और अपनी जीवन कथा सुनाते हुए। मैं बात कर रहा हूँ "शेखर सेन" के सुप्रसिद्ध एक-पात्रीय गीत नाटक "कबीर" की। इस नाटक को देखने की मेरी लम्बे समय से अभिलाषा थी जो पिछले महीने पूरी हुई। स्थान था भोपाल का भारत भवन और अवसर था भारत भवन के रजत जयंती समारोह का।

एक नाट्य प्रेमी होने के नाते मैने भारत भवन में बहुत से नाटकों का मंचन देखा है पर यह नाटक उन खास चुनिंदा नाटकों में से है जिन्होने मेरे हृदय पर अमिट छाप छोड़ी है। इस नाटक को देखना सचमुच एक अविस्मरणीय और दिव्य अनुभव है।

शेखर सेन ने -जो कि एक अच्छे अभिनेता होने के साथ ही एक उम्दा शास्त्रीय गायक भी हैं- अपने अभिनय और गायन के द्वारा कबीर को पुनर्जीवित कर दिया। वे लगभग 2.30 घंटे तक अकेले ही दर्शकों को सम्मोहित करने और बाँधे रखने में सफल हुए। इस प्रस्तुति में उन्होने कबीर के बचपन से लेकर मृत्यु तक कि कथा कबीर के मुख से ही कहलवायी है। कबीर के जीवन से जुड़ी ऐसी बहुत सी बातें मुझे मालूम हुईं जिनसे मैं पहले अनभिज्ञ था। साथ-साथ उन्होने कबीर के ढेर सारे शबद और दोहे इस सुरीले अंदाज़ में गाए कि श्रोता भी झूम उठे। न केवल कबीर बल्कि उनके समकालीन दुसरे संतों के भी कुछ पद उन्होने गाए। कबीर की एक बेटी थी "कमाली" (जिसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी) उसका एक शबद उन्होने बड़ी खूबसूरती से गाया-

सैंया निकस गए मैं न लड़ी थी..

कबीर का एक बेटा भी था- कमाल। उससे जुड़ा एक प्रसंग उन्होने सुनाया। कबीर का प्रसिद्ध दोहा है-

चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोए
दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोए

इसे सुनकर कमाल ने भी एक दोहा रचा-

चलती चक्की देखकर दिया कमाल ठठाय
जो कीली से लग गया वो साबुत रह जाय

कबीर ने इस पर कहा कि यूँ तो वह कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया उसे खुद नहीं पता।

शेखर सेन मूलत: छत्तीसगढ़ से हैं। उनके माता-पिता भी ख्यात शास्त्रीय गायक हैं। बचपन से ही वे गायन में नाम कमाते आए हैं। उन्होने "कबीर" के अलावा "तुलसीदास" और "विवेकानंद" भी किए हैं। इन तीनो गीत नाटकों से ही उन्हे राष्ट्रीय स्तर की पहचान मिली। इनकी सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत भवन के इस मंचन से पहले वे इन तीनो नाटकों को मिलाकर 450 मंचन कर चुके थे। वो भी मात्र आठ वर्षों में। जब उन्होने यह शुरु किया था तब लोगो ने उन्हे रोकने और समझाने की कोशिश की थी कि कौन देखेगा इन पुराने चरित्रों को, सच से आजकल किसे सारोकार है। बजाय इसके उन्हे कुछ हास्य नाटक वगैरह करना चाहिये। पर उन्होने अपना निश्चय और मनोबल बनाए रखा और परिणाम आज सामने है। इस संबंध में उनकी यह बात उल्लेखनीय है- "झूठ बिकता है पर सच टिकता है।" (जैसा कि उन्होने मंचन के बाद दर्शकों को बताया)

इस नाटक के बारे में और क्या कहूँ। अभिनय, संवाद, गायन, संगीत, वेश-भूषा, प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था, मंच निर्माण सभी दृष्टि से बेजोड़ है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसके माध्यम से शेखर सेन ने कबीर के संदेश और दर्शन को सफलता पूर्वक अग्रेषित किया है। शायद यही इसकी सफलता का सबसे बड़ा कारण है। कबीर अपने जीवन भर कर्म-काण्ड, पाखण्ड, झूठ, अंधविश्वास, संकीर्णता, धार्मिक वैमनस्य और सांप्रदायिकता से लड़ते रहे। आज के इस युग में हमे कबीर और उनके विचारों की नितांत आवश्यकता है। कबीर को पढ़ने और जीवन में उतारने के लिये जिस सजगता की आवश्यकता है यह नाटक कुछ हद तक उसकी पुर्ति करता है।

मैं उन सभी लोगो से जिन्होने यह नाटक नहीं देखा है यही अनुरोध करूंगा कि यदि अवसर मिले तो इसे अवश्य देखें।

शेखर सेन और उनके नाटकों के बारे में और अधिक जानने के लिये उनकी वेबसाइट पर विज़िट करें - http://www.shekharsen.com/index.htm