बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ...

रात की ओर अग्रसर शाम। मैं "न्यू मार्केट" में घूम रहा हूँ। पूरा बाज़ार सजा हुआ है। दीवाली की रौनक है। दुकानदारोँ ने दुकान के बाहर भी दुकान लगा रखी है। सारे फ़ुटपाथ पर छोटे बड़े व्यापारियों ने कब्जा कर रखा है। पैदल चलना भी दूभर है। भीड़ भी बहुत ज्यादा है। ऐसा लग रहा है मानो कोई मेला लगा हो। वैसे अतिक्रमण की समस्या तो स्थायी है। बीच बीच मे इन्हे हटाने का अभियान चलता है पर फिर वही हाल हो जाता है। इसका सबसे ज्यादा असर किसी भी रविवार को देखा जा सकता है इस दिन जैसे आधा शहर यहीं आ जाता है और सड़कों और फुटपाथों पर लगी दुकानों के बीच आप सरक सरक कर ही आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन आज तो किसी भी आम रविवार से भी ज्यादा ख़राब हालत है। यही हाल पार्किंग का है, गाड़ी खड़ी करने के लिए जगह पाना किसी जंग के जीतने से कम नहीं है।

मैं बाज़ार के अंदर  हूँ। हर तरफ़ रोशनी और रंगीनियाँ छाई हैं। सारे दुकानदार ग्राहकों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मन करता है सब कुछ खरीद लें। ढ़ेर सारे स्टॉल उन चीज़ों से भरे पड़े हैं जो खास तौर पर दीवाली के समय ही मिलती हैं। इनमे सजावट और पूजन सामग्रियों से लेकर खाने पीने की वस्तुयेँ शामिल हैं। तभी एक बच्चे पर नज़र जाती है जो आती जाती महिलाओं और लड़कियों को रोककर कह रहा है- " दीदी नाड़ा लीजिये, आंटी नाड़ा लीजिये।" बच्चे के हाथ में प्लास्टिक का चौकोर पात्र है जिसमे नाड़े के बंडल हैं। फिर ध्यान जाता है पूरे बाज़ार मे ऐसे कितने ही 10 से 14 साल के बच्चे विभिन्न सामान बेच रहे हैं हैं। सड़क किनारे दुकान फैलाकर या घूम घूम कर बैग, कपड़े, सजावटी चीज़ें, सस्ते इलेक्ट्रॉनिक आइटम और न जाने क्या क्या ये बेचते हैं। अक्सर इन्हे देखता हूँ और राजेश जोशी की कविता " बच्चे काम पर जा रहे हैं" की पंक्तियां दोहराता हूँ। ये बच्चे शायद काम करने के लिये ही अभिशप्त हैं।


"टॉप एन टाउन" के सामने पहुंचता हूँ, यहाँ की सबसे ’हैप्पनिंग’ जगह। भीड़ के बीच जगह बनाकर लोग समूह मे खड़े होकर आइस क्रीम का मज़ा ले रहे हैं। सामने जो थोड़ी सी खुली जगह है पूरी तरह से बाज़ारियों के कब्ज़े मे है। बच के निकलना टेढ़ी खीर है। दुष्यंत कुमार का एक शेर है-

      आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार
अगर वे इस बाज़ार से गुजर जाते तो शायद दुसरी पंक्ति कुछ युँ होती- "रहगुज़र घेरे हुये खड़े हैं सब दुकानदार"। 

अभी वहाँ खड़ा ही था कि दो छोटे छोटे बच्चे जो बेतरह मैले कुचेले कपड़े पहने हैं मेरे सामने आते हैं और हाथ फैलाकर भीख मांगते हैं। मैं किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाता हूँ, ये बच्चे हर आने जाने और खड़े लोगो के लगभग पीछे ही पड़ जाते हैं, जैसा कि उन्हे सिखाया गया है।। यहाँ ही क्यों ये तो हर जगह नज़र आते हैं- पूरे शहर मे। चाय के टपरे, पान के ठेले, फ़ास्ट फूड का स्टॉल, मंदिर का द्वार गोया के हर जगह ये आपसे टकरा जायेंगे। आप चाहे इन्हे दुत्कारें, चाहे भगायें या चाहे नज़र अंदाज़ करें इनकी संख्या मे कोई कमी नहीं आती। बचपन से ही इनके स्वाभिमान को इतना कुचल दिया जाता है कि बड़े होकर भी ये सर उठा कर न चल पायें। इनसे तो जबरन भीख मंगवाया जा रहा है, पर ऐसे भिखारी भी तो कम नहीं हैं जो स्वेच्छा से ऐसा कर रहे हैं।

आज सुबह अखबार मे पढ़ी हुई हैडलाइन याद आ रही है,- " इस दीवाली मे शहर में  कुल खरीदारी 1000 करोड़ से ऊपर जाने की सम्भावना" इस का कारण यह बताया गया था कि  लोगो की औसत आय पिछले साल की तुलना मे बहुत बढ़ चुकी है। 

मैं सोच रहा हूँ क्या सच मे बढ़ चुकी है???



10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी पोस्ट ..सोचने पर मजबूर करती हुई ...सारा दृश्य जैसे आँखों के सामने आ गया बाज़ार का ...

    दीपावली की शुभकामनायें

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  2. आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
    मैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ

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  3. भोपाल की याद ताज़ा कराने के लिए धन्यवाद। आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो।

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  4. शिवम् जी, संगीता जी, बृजमोहन जी और विशाल जी टिप्पणी के लिए आप सबका धन्यवाद। आप सभी को और आपके परिजनो को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।


    बृजमोहन जी वर्ड वेरीफिकेशन हटा दिया है।

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  5. सोमेश जी बहुत सुंदर रचना है आपकी , भोपाल का न्यू
    मार्केट आंखों के सामने नजर आ रहा है खास कर के नाडे बेचने वाले बच्चे...अति उत्तम !

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  6. अनीता जी उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद...

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  7. सोमेश जी, बाजार के बहाने आपने भोपाल की याद दिला दी। भोपाल मेरे पसंदीदा शहरों मे से एक है। आपको हार्दिक शुभकामनाऍं।

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    मिलिए तंत्र मंत्र वाले गुरूजी से।
    भेदभाव करते हैं वे ही जिनकी पूजा कम है।

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  8. ज़ाकिर जी यहाँ आने के लिए शुक्रिया। भोपाल मुझे भी बहुत पसंद है इसलिए छोड़ने की इच्छा नहीं होती।

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  9. सन 1981 की दिसंबर में न्‍यू मार्केट में आइसक्रीम की दुकान पर लगी भीड़ देख कर आश्‍चर्य हुआ तो हमारे बुजुर्ग मित्र ने समझाया- आश्‍चर्य करते रहोगे तो पीछे छूट जाओगे, आगे बढ़ो, तुम भी आइसक्रीम खाओ. आज हम कहां खड़े हैं, कहां पहुंचे, ठीक-ठीक सोचा नहीं, लेकिन उस दिन आइसक्रीम हमने भी खा ली थी, अच्‍छे से याद है.

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