रविवार, 26 दिसंबर 2010

फिर सुनाओ यार वो लम्बी कहानी

सर्वप्रथम सभी साथियों और वरिष्ठजनों को नववर्ष 2011 की अग्रिम शुभकामनाएँ... आप सभी के लिए आने वाला यह साल मंगलमय रहे यही कामना करता हूँ आज प्रस्तुत है मेरी एक पुरानी ग़ज़लनुमा रचना। हालांकि मेरे लिए तो यह ग़ज़ल ही है पर उस्तादों के लिए जाने क्या हो। उम्मीद है आप इसकी कमियों से मुझे अवगत कराएँगे।


फिर सुनाओ यार वो लम्बी कहानी
भूल न जाएँ कहीं कल की निशानी

तुम तो जी लोगे मगर उनका भी सोचो
रोज कुआं खोद जो पीते हैं पानी

फूल से ज्यादा उगा रक्खे हैं काँटे
जाने कैसी कर रहे वे बागवानी

आपको लगता है आप हैं फ़रिश्ता
आपको भी हो गई है बदगुमानी

उनको कुछ भी याद अब आता नहीं
हमको बातें याद हैं सारी पुरानी

और लोगो को भले फुसला ही लो
खुद से तुम न कर सकोगे बेईमानी

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

प्रतीक... एक कविता


सूर्य का ढलना

प्रतीक है इस बात का

कि हमेशा नहीं रहता

दिन का उजाला

और

सूर्य का निकलना

प्रतीक है इस बात का

कि हमेशा नहीं रह सकता

रात का अँधेरा

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

क्योंकि हर बात की एक हद होती है

पेश हैं कुछ हल्के-फ़ुल्के गुदगुदाते जुमले। इनमें से कुछ तो मैने E-mails और sms से संकलित और अनुवादित किए हैं और बाकी अपने तरफ से जोड़े हैं। उम्मीद है आपके चेहरे पर मुस्कुराहट लाने के अपने उद्देश्य में कामयाब रहूँगा।
गोपनीयता की हद:
जब कोई किसी को ’ब्लेंक विज़िटिंग कार्ड’ दे...

बुद्धिमानी की हद:
जब कोई कोरे कागज़ की फोटो कॉपी करवाए...

भुलक्कड़पने की हद:
जब कोई आइना देखकर याद करने की कोशिश करे कि पहले इसे कहाँ देखा है...

मूर्खता की हद:
जब कोई ’ग्लास डोर’ के ’की होल’ से अंदर झाँककर देखने की कोशिश कर रहा हो...

ईमानदारी की हद:
जब कोई गर्भवती महिला डेढ़ टिकट लेकर यात्रा करे...

आलस की हद:
जब कोई ’मॉर्निंग वाक’ पर निकले और घर जाने के लिए ’लिफ्ट’ मांगे...

आत्महत्या की हद:
जब कोई बौना मरने के लिए ’फुटपाथ’ से कूदे...

निर्जलीकरण (डिहाइड्रेशन) की हद:
जब कोई गाय दूध पाउडर दे...

कंजूसी की हद:
जब किसी के घर में आग लग जाए और वह ’फायर ब्रिगेड’ को ’मिस्ड कॉल’ करता रहे...

देशभक्ति की हद:
जब कोई अपने देश की माटी में पड़े गोबर और मल को भी माथे से लगाए...

नियम कायदे की हद:
जब कोई सरकारी अधिकारी ’घूस’ की भी रसीद दे...

प्यार की हद:
जब प्रेमिका के मरने के बाद प्रेमी उसकी चिता पर बिस्तर लगाकर सोना शुरू कर दे।

फैशन की हद:

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

डॉक्टर की दुकान में ग्राहकों की भीड़


पिछले हफ्ते की ही बात है। मेरे एक परिचित को तेज पीठ दर्द की तकलीफ थी। उन्हे लेकर डॉक्टर के पास जाना था, तो उन्ही के बताए एक डॉक्टर के पास गए जिनके बारे में उनका कहना था कि वे शहर के सबसे अच्छे हड्डी रोग विशेषज्ञों में से एक हैं। मैं इन डॉक्टर के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। डॉक्टर के क्लिनिक के बाहर लगी भीड़ से ये अंदाजा हो गया कि उनकी प्रेक्टिस अच्छी चलती है। अंदर गए तो वेटिंग हाल में भी कुछ लोग बैठे थे। डॉक्टर का केबिन शायद अंदर की तरफ था जहाँ जाने के लिए एक खुला दरवाजा नज़र आ रहा था। वहीं एक कम्पाउंडर नुमा आदमी बैठा था। मैं उसके पास गया और पूछा कि डॉक्टर साहब हैं, उसके हाँ कहने पर मैने अर्ज किया कि दिखाना है आप मरीज का नाम लिख लो। इस पर उसने जानकारी दी कि यहाँ नाम लिखाने की जरूरत नहीं है। आप बैठिए।

चलिए ये भी ठीक है मैने सोचा और जाकर बैठ गया। मुझे लगा कि वो आदमी खुद ही ध्यान रखेगा कि कौन पहले आया और कौन बाद में और उसी क्रम से लोगों को बुलाता रहेगा। पर काफी देर तक बैठे रहने पर मैने महसूस किया कि इतनी देर में कोई अंदर नहीं गया, हाँ कुछ लोग बाहर आते जरूर दिखे। फिर वो आदमी भी अपनी जगह नहीं था बल्कि इधर उधर हो रहा था। मेरी बैचेनी थोड़ी बढ़ गई। मैं उठकर डॉ. के केबिन के पास गया। वहाँ एक दूसरा बंदा खड़ा था। मैने उसी से पूछा-

"क्यों भाई डॉ. साहब नहीं हैं क्या?"

"हैं न, अंदर हैं।"

"दिखाना है, टाइम लगेगा क्या?"

"दिखाना है तो चले जाओ अंदर"

ये सुनकर तो मेरी बाँछें खिल गई। मुझे लगा कि डॉ. खाली होगा। मैने तुरंत मरीज को आवाज लगायी, आ जाओ, आ जाओ फटाफट। पर जैसे ही उन्हे लेकर मैं अंदर गया वहाँ का दृश्य देखकर ठिठक कर रह गया।

अंदर एक बड़ी सी टेबल रखी थी और उसके पीछे डॉ. बैठा हुआ था। पर मैं न तो डॉ. को देख पा रहा था और न ही टेबल को, क्योंकि उस टेबल के इस और लगभग १५-२० लोगों की भीड़ लगी हुई थी। पहली नज़र में ही समझ आ गया कि ये सब मरीज और उनके परिजन हैं। अब जरा वहाँ का आँखों देखा हाल भी सुनिए-