आदरणीय/ प्रिय ............ जी आप कल/ परसों/ नरसों जो पोस्ट करने वाले हैं वह बहुत उम्दा है। मुझे बहुत ही अच्छा लगेगा। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए मेरी अग्रिम बधाईयाँ स्वीकार करें। धन्यवाद।
गुरुवार, 17 मार्च 2011
उल्टा है जमाना उल्टे चलो
शनिवार, 5 मार्च 2011
तेरा क्या और मेरा क्या?
अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन में ऐसे अनेक कार्यक्रम आया करते थे जिन्हें याद करके किसी का भी नॉस्टेलजिक हो जाना स्वाभाविक है। मेरा भी बचपन और लड़कपन दूरदर्शन देखते हुए गुजरा है. ऐसे अनेक कार्यक्रम, धारावाहिक, शोज़, फ़िल्में, विज्ञापन इत्यादि हैं जो मुझे फिर उसी दौर में ले जाते हैं। इनका रोमांच ही अलग है। ऐसा ही एक कार्यक्रम था जो बच्चों के लिए आया करता था, हालांकि बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं था, इसका नाम था 'टर रम टू'। शायद आपको याद यह याद हो। इसके प्रमुख पात्र थे नट्टू, हिसाबी, कटोरी, आज़ाद इत्यादि। छोटी छोटी रोचक कहानियों और मजेदार संवादों के द्वारा इसमें बच्चों को गणित, सामान्य ज्ञान, अक्षर ज्ञान, नैतिक शिक्षा आदि सिखाया जाता था खेल खेल में सीखो के अंदाज में। मुझे टर रम टू बहुत पसंद था हालांकि जिस आयुसमूह के बच्चों के लिए इसे बनाया गया होगा मैं उससे बड़ा ही था।
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
फ़र्ज़ और फर्क
गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011
सवाल कुछ न पूछिए
शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011
प्रेम में डूबी हुई लड़की की ब्लॉग कथा
कथासूत्र को समझने के लिए इस कहानी को पढ़ने से पूर्व इसकी पूर्वकथा को पढ़ना उचित रहेगा।
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
एक अकेली और उदास लड़की की ब्लॉग कथा
एक दिन उसे ब्लॉग के बारे में पता चला, उसने सोचा चलो जी बहला रहेगा और उसने एक ब्लॉग बना लिया। ब्लॉग में उसने अपने सपनों को सजाना शुरू कर दिया। अपनी कल्पना और रचनात्मकता से उसने ब्लॉग मे ही अपनी दुनिया बना ली।
उसने ब्लॉग में एक झील बनाई, झील के किनारे पहाड़ बनाया, झील के दुसरे सिरे में एक सुन्दर पार्क बनाया और उस पार्क में एक बेंच बनाई। उस बेंच पर बैठकर वो झील और पहाड़ के खूबसूरती को निहारा करती और सोचा करती। सोचा करती अपने अकेलेपन के बारे में, अपनी उदासी के बारे में और अपने जीवन के बारे में। सोचते सोचते उसने इन पर कविता लिखना शुरू कर दिया। उन कविताओं को भी उसने अपने ब्लॉग पर सजाना शुरू कर दिया। अपने सपनों के ब्लॉग में, सपनों की झील किनारे, सपनों के पार्क में, सपनों के बेंच में बैठ वह उन कविताओं को गुनगुनाया करती।
एक दिन जब वह अपनी एक कविता गुनगुना रही थी एक लड़का उसके पास आकर उसकी कविता सुनने लगा। लड़की ने जब कविता ख़त्म की तो लड़के ने ताली बजाई और उसकी प्रशंसा की। लड़की झेंप गई. उसने लड़के को देखा। लड़का उसी के उम्र का था। सुकुमार सा। उसके चेहरे पर कोमल भाव थे। लड़की को वो बिलकुल अपना सा लगा। लड़का लड़की के पास ही बैठ गया। लड़के ने लड़की के कविता की तरीफ़ की। लड़की ने शुक्रिया कहा। लड़के ने बताया कि उसका भी एक ब्लॉग है और वह घूमते घूमते यहाँ आ गया। दोनो बैठकर बातें करने लगे। लड़के ने लड़की को अपनी कविताएं सुनाई। लड़की को पसंद आईं। दोनो देर तक बातें करते रहे। एक दूसरे के बारे में जानते रहे। लड़की को लड़के से बात करना बहुत अच्छा लगा।
अब दोनो अक्सर वहाँ मिलने लगे। मिलते और घंटों बातें करते। लड़की को लड़के का साथ बहुत अच्छा लगता। उससे बात करते हुए उसे लगता के समय थमा रहे। पर समय नहीं थमता और लड़की के अपने ब्लॉग से निकलकर अपने कमरे में जाने का समय हो जाता। फिर मिलने का वादा करके दोनो विदा होते। लड़की अब खुश रहने लगी। उसे सबकुछ अच्छा लगने लगा। उसने अब उदासी और अकेलेपन की कविताएं लिखना छोड़ दिया।
रविवार, 30 जनवरी 2011
मातृभूमि और राष्ट्रभक्ति...
थोड़ी सी श्रद्धा | थोड़ी सी मातृभूमि | थोड़ी सी राष्ट्रभक्ति से भरे
जो मनुष्य मिलते हैं हमेशा मुझे संशय मे डाल देते हैं.
बहुत सी श्रद्धा | बहुत सी मातृभूमि | बहुत सी राष्ट्रभक्ति वाले भी
मुझे कहीं न कहीं क़ैद कर देना चाहते हैं.
श्रद्धा जो अतार्किक आस्था है
आस्था जो तर्कातीत स्थिति है
मातृभूमि जो राजनीतिक परिसीमन है
और राष्ट्रीयता जो कि भौगोलिक जाति है
मुझे इस बहुत बड़े विश्व में अकेला कर देने के लिए काफी है
सीमित नागरिकता के बावजूद मेरे पास असीम राष्ट्र है
और असीम मातृभूमि
मुझे आल्पस से भी उतना ही प्यार है जितना हिमालय से
हम जितने ही मिश्रित होंगे
उतने ही कम अकेले और कम खतरनाक होंगे.
-लीलाधर जगूड़ी
सोमवार, 24 जनवरी 2011
रेलगाड़ी रेलगाड़ी...
पर इस समय मैं रेल के बहाने अपने बचपन को याद करना चाहता हूँ। नहीं जी, मेरे परिवार में कोई रेलवे में नहीं रहा पर फिर भी रेल यात्राओं से जुडी बहुत यादें हैं। मेरा पूरा बचपन रायपुर और उसके आसपास की जगहों में मतलब छत्तीसगढ़ में बीता है पर मेरे ननिहाल और ददिहाल दोनो ही बुंदेलखंड में है। सो हर वर्ष गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने के लिए हम सब वहाँ जाते थे। इसके लिए हम छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर से झांसी का लम्बा सफ़र करते थे और इसी ट्रेन से वापिस भी आते थे ये आमतौर पर ये हमारी साल भर की अकेली रेल यात्रा होती थी (यदि बीच में कोई शादी वगैरह न पड़ी तो) और हम तीनो भाई बहन इसे खूब एंजॉय करते थे। रास्ते में खाते पीते लोगों से दोस्ती करते रास्ता कटता था। चूँकि मेरे ज्यादातर दोस्त आसपास के ही थे इसलिए अमूमन रेल यात्राओं से वे लोग वंचित रहते थे और इसी वजह से मैं अपनी यात्राओं का अनुभव बताकर उन्हें जलाने और प्रभावित करने की कोशिश करता था और अक्सर सफ़ल भी होता था।
उन दिनों को याद करता हूँ तो सबसे पहले मुझे कॉमिक्स याद आते हैं। बचपन में मैं कॉमिक्स का विकट शौक़ीन था और रेल यात्राओं के दौरान कॉमिक्स पढ़ना तो मेरा परम धर्म था। जैसे ही हम किसी स्टेशन पर पहुंचते थे मैं सबसे पहले बुक स्टॉल की तरफ भागता था और जब तक दो चार कॉमिक्स न ले लूँ वहाँ से टरता नहीं था। कॉमिक्स और रेल ये दोनों तो जैसे साथ में ही गुंथे हुए हैं बचपन की यादों मे। मुझे अगर कॉमिक्स नहीं दिलाया जाता था तो मैं आसमान सर पर उठा लेता था।
और भी यादें हैं मसलन जब हम ट्रेन से उतर चुके होते तो भी एकाध दिन तक यही लगता था जैसे ट्रेन में ही बैठे हों। (अब जाने क्यों ऐसा अहसास नहीं होता चाहे जितनी लम्बी यात्रा ही क्यों न कर लें)
उन्ही दिनों दूरदर्शन में एक विज्ञापन आया करता था भारतीय रेलवे का जो पूरा तो याद नहीं है पर उसकी आखिरी लाइन थी- "हम बेहतर इसे बनाएँ.... रेलवे..." इस विज्ञापन को देखकर मैं हमेशा रोमांचित हो जाता था और इंतज़ार करने लगता था कब रेल में बैठने को मिलेगा।
भारतीय रेलवे के १५० वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर जारी डाक टिकट |
हाँ एक बात और, रेल की बात से मुझे अशोक कुमार का गाना "रेलगाड़ी रेलगाड़ी..." याद आ गया। आप सब ने सुना ही होगा। ये गाना हमें बहुत पसंद था और इसे सुनकर हम सभी को बहुत गर्व और खुशी होती थी क्यों? इस गीत में एक जगह अशोक कुमार कहते हैं - "रायपुर- जयपुर, जयपुर- रायपुर..." अब बताइये किसी गाने में अपने शहर का नाम सुनकर भला किसे अच्छा नहीं लगेगा। और हज़ारों हिन्दी फ़िल्मी गानों में ये एक अकेला गाना था जिसमे रायपुर का नाम आता था इसलिए बहुत स्पेशल स्पेशल सी फीलिंग होती थी हमें।
बरसों बाद यही खुशी " ससुराल गेंदा फूल" ने दी। :)
तो चलिए मेरे साथ आप भी अशोक कुमार के इस सदाबहार क्लासिक गीत का आनंद लें-
रविवार, 16 जनवरी 2011
अखबार की खबरें और जोर का झटका...
एक बार तो मैंने यह तय किया था कि अखबार में ये अपराध और दुर्घटनाओं याली खबरें पढूंगा ही नहीं। पढ़ना ही हुआ तो सिर्फ हैडिंग ही पढूंगा। कुछ दिन तो यह सिलसिला चला पर फिर मैंने सोचा कि आँखें बंद करने से हकीकत तो नहीं बदल जाएगी। और कब तक ऐसे डर- डर कर जिया जा सकता है। और सच तो ये भी है कि भले ही डर लगे लेकिन ऐसी सनसनी वाली खबरें पढ़ने से खुद को रोक भी नहीं पाता। फिर हर बार ये खबरें पढ़कर कुछ न कुछ सबक तो मिलता ही है कि क्या सावधानी बरतनी चाहिए। कुछ भी हो अखबार पढ़ना तो हम नहीं छोड़ेंगे।
पर कभी कभी ऐसी खबरें भी पढ़ने को मिल जाती हैं जो गुदगुदा जाती हैं। ऐसी ही एक खबर पर दो दिन पहले नज़र पड़ी। भोपाल के किसी पति की दास्ताँ थी ये बेचारा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी मे काम करता है और जिस दिन भी वो सात बजे तक घर नहीं आ पता था उसे रात बाहर गुजारनी पड़ती थी। पत्नी घर में घुसाने ही नहीं देती थी न। पर क्यों आखिर? दर असल इन्होने प्रेम-विवाह किया था और शादी से पहले लडकी ने लड़के से स्टाम्प पेपर में अपनी कुछ शर्तों मे साइन करवा रखा था। उन्ही में से एक शर्त थी कि यदि लड़का सात बजे तक घर नहीं आया तो लड़की उसे घर में घुसने नहीं देगी। कुछ और शर्तें भी देख लें
एक समय खाना मैं बनाउंगी, एक समय तुम।
रात नौ के बाद घर में टी.वी. नहीं चलाओगे।
शराब पूछ कर पीओगे।
मां से नहीं मिलने जाओगे
पहले तुम्हारे रुपयों से घर खर्च चलाया जाएगा फिर मेरे रुपयों से
मकान मेरे नाम पे खरीदोगे
इत्यादि...
लड़के ने सोचा होगा कि मज़ाक कर रही है फिर प्यार का भूत भी रहा होगा सो उसने सब स्वीकार कर लिया। कुछ महीने तो ठीक चला पर उसके बाद बीवी ने बाकायदा सारी शर्तों का पालन करना शुरू कर दिया। कई बार घर आने पर वो सूंघ कर देखती कि कहीं शराब पीकर तो नहीं आया। एक बार तो शक होने पर ब्लड टेस्ट भी करवा लिया था। जब लड़के ने कई रातें स्टेशन में गुजारीं तब उसके बर्दाश्त के बाहर हुआ। उसने सीधे सीएसपी को फोन लगाया और धमकी दी कि यदि उन्होंने मामला नहीं सुलझाया तो वो आत्महत्या कर लेगा। पुलिस ने दोनों को बुलवाकर परामर्श किया और कुछ समझौता करवाया।
बेचारा लड़का वो तो बस यही गाता रहता होगा- "जोर का झटका हाय जोरों से लगा, शादी बन गयी उम्रकैद की सज़ा...
इस खबर को पढ़कर थोड़ा अच्छा भी लगा कि अब लडकियां भी अपने शर्तों पर शादी कर रही हैं, पतियों की मनमानी अब नहीं चलेगी। पर उस पति पर तरस भी आया। अब सारे पुरुषों का बदला उस बेचारे से लिया जाए ये भी तो उचित नहीं है न?
शुक्र ये है कि इसे पढ़कर मुझे डर नहीं लगा कि ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है क्योंकि संयोग से मैं पहले से ही शादीशुदा हूँ और सौभाग्य से मैंने ऐसी किन्ही शर्तों पर शादी नहीं की है। फिर हमारी आपसी अंडरस्टेंडिंग इतनी बुरी नहीं है कि ऐसी नौबत आए।
(कम से कम मैं तो यही समझता हूँ)
हाँ ये खबर शादी के पहले पढ़ ली होती तो शायद डरके मारे शादी ही नहीं करता।
(अब ये भी दिल को बहलाने वाली बात है, वरना क्या शादी के पहले ऐसी बातें नहीं सुनी थी?)
अब एक बात और मेरे दिमाग में घूम रही है पति पत्नी के सारे चुटकुलों में पति को ही बेचारा क्यों बताया जाता है? कहीं वो पत्नी के ज्यादा बोलने से पीड़ित है, कहीं उसके टोकने से, कहीं उसके मोटापे से, कहीं झगडालूपन से तो कहीं उसके देहातीपन से। और तो और इन सारे चुटकुलों में पत्नी नामक प्राणी को निहायत ही बेवक़ूफ़ और बातूनी बताया जाता है। क्योंकर?
मंगलवार, 4 जनवरी 2011
एक असामान्य दिन
तो इस दिन की प्लानिंग तो पहले ही चल रही थी, हमें कहा गया था कि पहली जनवरी को सारे स्टाफ मेम्बरान साँची घूमने जायेंगे पर एक दिन पहले ही पता चला की ये कार्यक्रम निरस्त हो गया है। हमारे संस्थान में ऐसा होता रहता है। खैर इस दिन बच्चों की छुट्टी कर दी गई और हम सब से कहा गया कि कॉलेज केम्पस में पार्टी होगी। तो सुबह कॉलेज पहुंचे। सारे लोग मुख्य ईमारत के सामने इकट्ठा हुए और फिर एक दूसरे को शुभकामनाएँ देने का सिलसिला शुरु हुआ। जिन लोगो से मेरी कभी बातचीत नहीं हुई थी (विभाग अलग होने की वजह से, मैं फार्मेसी विभाग में पढ़ाता हूँ) उनसे भी गले लग लग कर शुभकामनाएँ ले-दे रहा था।
खैर कुछ देर तक ये सिलसिला चलता रहा फिर पता चला कि आज सब भोजपुर जाने वाले हैं। चलिये ये भी सही है। तो साहब सारे टीचिंग और नॉन टीचिंग फेकल्टी मेम्बर ( हमारे बीच यही पॉपुलर है इसलिये हिन्दी तर्ज़ुमा नहीं कर रहा हूँ) संस्थान की तीन बसों मे भरकर निकले। लगभग सवा सौ लोग थे। रास्ते में इंजीनियरिंग, फार्मेसी और मेनेजमेंट के शिक्षकगण और अन्य कर्मचारी बच्चों की तरह हल्ला करते जा रहे थे।
जो लोग भोजपुर के बारे में नही जानते उनके लिए बता दूँ कि भोजपुर भोपाल से लगभग ३२ कि. मी. दूर एक दर्शनीय स्थल है। यहाँ बेतवा नदी के तट पर एक पहाड़ी में राजा भोज द्वारा बनवाया हुआ एक दसवी शताब्दी का शिव मंदिर है। किन्ही कारणों से मंदिर का निर्माण अधूरा रह गया। सबसे खास बात है यहाँ का शिवलिंग जिसके बारे में कहा जाता है कि यह विश्व का सबसे बड़ा शिवलिंग है (योनिपट्ट सहित २२ फीट ऊँचा)। वैसे राजधानीवासियों के बीच यह जगह धार्मिक स्थल से ज्यादा पिकनिक स्पॉट के रूप में मान्य है।
तो दोपहर तक हम सब वहाँ पहुंचे। वहाँ देखा तो मेला सरीखा लगा रखा था। काफी लोग वहाँ आये थे। कुछ स्कूलों के बच्चे भी पिकनिक मनाने आए हुए थे। शायद नये वर्ष के पहले दिन लोग मंदिर जाकर दर्शन करना शुभ मानते हैं और यहाँ दर्शन के साथ घूमना फिरना भी हो जाता इसलिए इतने लोग आज यहाँ नज़र आ रहे हैं।
तो भैया पहले तो हम अपने दो चार मित्रों के साथ मंदिर में दर्शन कर आए फिर घूमना शुरु किया। बेतवा नदी के किनारे पहुंचे, ऊपर चट्टान से नीचे घाटी का नजारा लिया। नदी में पानी कम है और ठहरा हुआ है, इसलिए तालाब सा लगता है। ज्यादातर नदियों की अब यही स्थिति रह गई है। छोटी नौका में लोग बोटिंग का लुत्फ़ ले रहे थे। वहाँ काले मुंह वाले बंदर भी खूब थे। लोगो को डरा कर उनकी खाने की चीज़ें (अमरूद, लड्डू आदि) छीन लेते हैं और फिर आपस में छीना झपटी मचाकर निपटा देते हैं।
दो इस तरह घूमते फिरते काफी वक्त बीत गया। तेज भूख लगने लगी थी। नीचे छोटा सा बाज़ार सा लगा हुआ था जहाँ पूजन सामग्री सहित ढ़ेर सारी वस्तुएं बिक रहीं थीं वहीं एक दुकान से कचोड़ियाँ खायीं। लेकिन इससे क्या होता है? वैसे कॉलेज वालो ने भोजन की व्यवस्था भी की थी (यह एक और सुखद आश्चर्य था)।
तो वहाँ से सब लोग एकत्रित होकर मंदिर कुछ दूर स्थित एक जैन मंदिर गए। वो भी मनोरम सी जगह है खुली सी। उद्यान भी है। वहीं पर एक जैन परिवार भोजनालय चलाता है। यहाँ दाल-बाफले का ऑर्डर पहले ही दे दिया गया था। भोजनालय के बगल में काफी खुली सी जगह थी वहीं टाटपट्टियाँ बिछाकर सबको बैठाया गया और दाल बाफले खिलवाए गए। खाना दो पालियों में हुआ, हम दूसरी पाली में बैठे। तब तक साढ़े चार बज गए थे। बहुत भूख लगी थी। इसलिए दाल और कढ़ी में मिर्च अधिक होने के बावजूद खूब बाफले खाए। इसके बाद वापस बस में बैठे और घर की और रवाना हो गए। घर आकर इतने थक चुके थे कि बाकी सारी शाम आराम करने में बीती।
चूँकि हमें फोटोग्राफी का भी बहुत शौक है इसलिए मौका देखकर अपना कैमरा भी रख लिया था। तो वहाँ जमके फोटोग्राफी की। कुछ फोटो हम भी खींचवा लिए। अब सारे तो आपको दिखा नहीं सकते इसलिए कुछ ही आपको दिखा रहा हूँ, देखिये और आनंद लीजिये। :)
ये है भोजपुर का मंदिर |
फ्रंट व्यु: भीड़ तो देखिए |
हम सोचे हम भी मंदिर के सामने फोटू खींचवा लें |
ये है विश्व का सबसे बड़ा शिवलिंग |
पीछे बेतवा नदी नजर आ रही है |