बहुत भीड़ थी ट्रेन में. स्लीपर का डिब्बा भी जनरल बोगी जैसा लग रहा था.
उस दिन कोई त्यौहार था और कोई मेला था मथुरा में. जैसे ही गाड़ी गंज बासौदा पहुँची ग्रामीणों का हुजूम ट्रेन के हर डिब्बे में टूट पड़ा. प्लेटफॉर्म पर भी जहाँ तक नज़र जाती थी लोग ही लोग दिख रहे थे. सूती साड़ी पहने महिलाएं और धोती कुरता पहने पगड़ी बांधे परुष और बुजुर्ग. इनके मैले कुचेले कपड़े और स्वास्थ्य इनकी आर्थिक स्थिति बयां कर रहे थे. हालत ये हो गई की स्लीपर के डिब्बों में भी जिसे जहाँ जगह मिली वहीं पसर गया. जनरल बोगी में तो घुसने की भी जगह नहीं थी. आने वाले हर स्टेशन पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. स्लीपर के यात्री परेशान तो हो रहे थे विरोध भी कर रहे थे पर खुद को असहाय ही पा रहे थे.
अगले स्टेशन में गाड़ी के पहुँचते ही इस बोगी में अचानक एक महिला के चिल्लाने की आवाज़ आई और कुछ गाली गलौज की भी. लोगो ने चौंककर देखा कुछ हट्टे कट्टे युवक थे जो इन ग्रामीणों को बुरी तरह डांट और धमका रहे थे. ऊपर के बर्थ पर एक कुछ औरतें गठरी सी बनीं बैठी थीं इन युवकों में से एक ने एक औरत का हाथ पकड़कर उसे नीचे खींचा और चिल्लाया - उतरो यहाँ से बाप का डिब्बा है क्या? औरत गिरते गिरते बची. नीचे बैठे एक बूढ़े को एक गंदी गाली देकर दूसरे ने कसकर लात जमाई. वो बेचारा अपना पिछवाड़ा सहलाता हुआ उठ खड़ा हुआ. इसी तरह वे लोग इन्हें खींच खींचकर और धकेल धकेल कर वहां से भगा रहे थे और साथ में गालियों की बौछार भी किये जा रहे थे. इन लड़कों का ये रोद्र रूप देकर ग्रामीणों में अफरा तफरी मच गई. रोते चिल्लाते हुए वे वहां से भागने लगे. इनके झोले बैग वगैरह भी इन लोगो ने उठाकर फ़ेंक दिए. बाकी यात्री चुपचाप ये तमाशा देखते रहे. आखिर इन्होने अपने बर्थ खाली करवा लिए और बैठकर बड़बड़ाने लगे.