गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

फ़र्ज़ और फर्क

बहुत भीड़ थी ट्रेन में. स्लीपर का डिब्बा भी जनरल बोगी जैसा लग रहा था. 

उस दिन कोई त्यौहार था और कोई मेला था मथुरा में. जैसे ही गाड़ी गंज बासौदा पहुँची ग्रामीणों का हुजूम ट्रेन के हर डिब्बे में टूट पड़ा. प्लेटफॉर्म पर भी जहाँ तक नज़र जाती थी लोग ही लोग दिख रहे थे. सूती साड़ी पहने महिलाएं और धोती कुरता पहने पगड़ी बांधे परुष और बुजुर्ग. इनके मैले कुचेले कपड़े और स्वास्थ्य इनकी आर्थिक स्थिति बयां कर रहे थे. हालत ये हो गई की स्लीपर के डिब्बों में भी जिसे जहाँ जगह मिली वहीं पसर गया. जनरल बोगी में तो घुसने की भी जगह नहीं थी. आने वाले हर स्टेशन पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. स्लीपर के यात्री परेशान तो हो रहे थे विरोध भी कर रहे थे पर खुद को असहाय ही पा रहे थे.

अगले स्टेशन में गाड़ी के पहुँचते ही इस बोगी में अचानक एक महिला के चिल्लाने की आवाज़ आई और कुछ गाली गलौज की भी. लोगो ने चौंककर देखा कुछ हट्टे कट्टे युवक थे जो इन ग्रामीणों को बुरी तरह डांट और धमका रहे थे. ऊपर के बर्थ पर एक कुछ औरतें गठरी सी बनीं बैठी थीं इन युवकों में से एक ने एक औरत का हाथ पकड़कर उसे नीचे खींचा और चिल्लाया - उतरो यहाँ से बाप का डिब्बा है क्या? औरत गिरते गिरते बची. नीचे बैठे एक बूढ़े को एक गंदी गाली देकर दूसरे ने कसकर लात जमाई. वो बेचारा अपना पिछवाड़ा सहलाता हुआ उठ खड़ा हुआ. इसी तरह वे लोग इन्हें खींच खींचकर और धकेल धकेल कर वहां से भगा रहे थे और साथ में गालियों की बौछार भी किये जा रहे थे. इन लड़कों का ये रोद्र रूप देकर ग्रामीणों में अफरा तफरी मच गई. रोते चिल्लाते हुए वे वहां से भागने लगे. इनके  झोले बैग वगैरह भी इन लोगो ने उठाकर फ़ेंक दिए. बाकी यात्री चुपचाप ये तमाशा देखते रहे. आखिर इन्होने अपने बर्थ खाली करवा लिए और बैठकर बड़बड़ाने लगे.

-ये साले सब के सब विदाउट टिकट हैं. -ऐसे घुसे चले जा रहें हैं जैसे बाप की गाड़ी हो. -इनको तो लाइन से खड़ा करके जूते मारने चाहिए. और न जाने क्या क्या. किसी ने कहा मेले जा रहे हैं दर्शन करने तो जवाब आया - तो जनरल डिब्बे में घुसे यहाँ क्यों घुस रहे हैं. -जेब में पैसे नहीं और चले  दर्शन करने. देर तक ये लोग भड़ास निकलते रहे और साथ ही इनका यही इलाज है जैसे जुमले फेंककर यह जताते रहे की उनको हटाकर उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है. दो चार लोगों को छोड़कर कोई भी इनकी बातों में शामिल नहीं हुआ और गाँव वाले बेचारे दुबके पड़े थे वे क्या बोलते?

कुछ देर बाद जब माहौल ज़रा शांत हुआ इन लड़कों के पास की एक बर्थ पर बैठी हुई एक संभ्रांत महिला को लघुशंका निवारण हेतु शौचालय जाने की आवश्यकता महसूस हुई. वो जाने के लिए उठी तो उसने देखा के टॉयलेट तक लोग ही लोग बैठे हुए हैं और उनके बीच में से होकर वहां जाना आसान नहीं है. धीरे धीरे वो जगह बनाने की कोशिश करती हुई वो उस और बढ़ी. उसकी दिक्कत देखकर उन्ही लड़कों में से एक लड़का उठा और उस महिला की सहायता के लिए पहुँच गया- आइये मैडम मेरे पीछे पीछे आइये. हटो जरा खिसको मैडम को जाने दो- चिल्लाता हुआ वो आसानी से जगह बनाता जा रहा था और महिला को बड़ी विनम्रता से कहा रहा था- आ जाइए आ जाइये. महिला के टॉयलेट के अंदर जाने पर वो वहीं पर पहरेदार की तरह खड़ा रहा फिर उसी तरह जगह बनाते हुए वापस ले आया.

सौजन्यतावश महिला ने कहा- धन्यवाद भाईसाहब.

- "अरे मैडम ये तो मेरा फ़र्ज़ था. अब एक दूसरे की इतनी सहायता करेंगे ही न," लड़के ने जवाब दिया और खीसें निपोर दीं. 


32 टिप्‍पणियां:

  1. सोमेश जी ,
    बहुत सुंदर लिखा है .

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  2. सोमेश जी ,
    बहुत सुंदर लिखा है .

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  3. हर जगह अलग अलग व्यवहार करते हैं लोग इन परिस्थितियों में।

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  4. आंखों देखी ही घटना लगती है। भाल देखकर तिलक लगाना हम लोगों के लिये अजूबा नहीं है। रेल यात्रा के अनुभव, खासतौर पर डेली पैसेंजरी के विभिन्न अनुभवों पर बहुत सी पोस्ट्स लिखने का स्कोप है। बारह साल लगातार डेली पैसेंजरी की है, और बहुत मस्त अनुभव रहे। पोस्ट पढ़कर गुजरा समय भी याद आया और खुद भी आत्मावलोकन किया कि हमसे भी ऐसे काम हुये कि नहीं - नतीजा, एक सांस सुख की। शुक्रिया ऐसी सांस लाने के लिये:)

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  5. हा जी ऎसा ही होता हे गरीब या ग्रामीण इन के लिये कुछ नही, लेकिन अगर कोई गोरा होता तो यह काले अग्रेज उस का गुह भी खाने को तेयार होते, लानत हे ऎसे लोगो पर, ओर अगर सभी ग्रामीण मिल कर दो दो हाथ इन छोरो को दिखा देते तो मजा आता.
    बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  6. इसलिए तो हम पाखंडी कहलाते हैं ...गलौज शब्द सही है या गलौच ...? ब्लॉग जगत में दोनों प्रचलन में है -शब्द साधना का सवाल है!मुझे याद सा है कि दिनेश द्विवेदी जी भी गलौच लिखते हैं मगर यह मुझे अशुद्ध लगता है .....

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  7. सहृदय होना, और सहृदय दिखाना अलग ही बातें होती हैं।
    प्रकाश के सिद्धांत मनुष्य पर भी तो लागू होते ही हैं न सोमेश जी?
    धन्यवाद इसे लिखने के लिए।

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  8. एकदम यथार्थ चित्रण...किसी शब्दचित्र की तरह...
    बधाई।

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  9. सोमेश जी, बहुत सुन्दर कहानी है.
    हम सभी दोहरा चेहरा लिए फिरते हैं.
    सलाम.

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  10. सोमेश भाई!
    अच्छा शब्दचित्र है...और सच्ची ही नहीं एक युनिवर्सल घटना है...इस घटना की महिला पात्र यदि युवति होतीं तो सारे रास्ते वे अपना स्तुति गान और शौर्य पुराण बाँचते चलते अपने मित्रों केसाथ और अपनीहर गाथा की प्रतिक्रिया उस युवती की आँखों में खोजने की कोशिश करते!! मैंने भी दो साल देखा है ये सब!!आपकी नज़र की नज़र उतारने की आवश्यकता है!!

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  11. यथार्थ है,सोमेश जी बहुत सुंदर लिखा है, धन्यवाद.

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  12. कही से भी कहानी नहीं ही बिलकुल यथार्थ है ऐसा मै भी कई बार देख चुकी हूँ ऐसे ही होते ही लोग | समाज में सभी सामने वाले की हैसियत देख कर ही व्यवहार करते है | किन्तु मेरे पास इससे बिलकुल उलट कहानी भी है जिसमे लड़के परीक्षा दे कर आ रहे थे और उन्होंने बोगी में बैठे तीन विदेशियों के साथ जिनमे दो महिलाए थी बहुत ही बुरा व्यवहार किया और किसी ने भी उन्हें कुछ नहीं कहा युवाओ के झुण्ड से कौन पंगा लेता |

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  13. तो आप भी वहां पर थे?
    पर मैनें तो आपको देखा ही नहीं।
    और आपने मुझे पहचाना नहीं या मेरे इस व्यवहार की वजह से अनजान बन गये।
    मैं तो वेशभूषा देखकर ही व्यवहार करता हूँ।

    प्रणाम

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  14. @ शिवकुमार जी
    @ ओम कश्यप जी
    @ दीपक सैनी जी
    धन्यवाद आप सभी का।

    @ प्रवीण पाण्डेय जी
    न केवल हर जगह बल्कि हर व्यक्ति से भी अलग अलग व्यवहार करते हैं लोग।

    @ संजय जी
    सही कहा आपने आंखों देखी ही घटना है। आपके अनुभवों पर पोस्ट पढ़ना अच्छा लगता है। जल्दी खाली कीजिए यह खजाना।

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  15. @ राज भाटिय़ा जी
    आप की बात से हम भी इत्तेफाक रखते हैं । काश ग्रामीणों में इतनी हिम्मत होती। धन्यवाद।

    @ अरविन्द मिश्रा जी
    मैंने लोगों के मुंह से गलौच ही सुना है अब तक इसलिए यही लिखा। सही क्या है मुझे नहीं पता। यदि आप पूर्णतः आश्वस्त हैं कि यह गलत प्रयोग है तो मुझे बताएं मैं बदल लूँगा। धन्यवाद एवं आभार।

    @ अविनाश चन्द्र जी
    बिलकुल अलग बातें हैं। धन्यवाद पढ़ने और सराहने के लिए।

    @ डॉ. शरद सिंह जी
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका।

    @ sagebob जी
    शुक्रिया।

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  16. @ सलिल जी
    आपकी नज़र तो मुझसे भी तेज है। देखिए आपने भी एक युनिवर्सल सच कह दिया। और आपका तारीफ़ करने का ये अंदाज अच्छा लगा, वैसे अपनी नज़र को किसी की नज़र नहीं लगेगी क्योंकि हम ही दूसरों को नज़र लगाते रहते हैं। :)

    @ कुश्वंश जी
    धन्यवाद आपका।

    @ अंशुमाला जी
    " समाज में सभी सामने वाले की हैसियत देख कर ही व्यवहार करते है |" एक वाक्य में सच्चाई बयां कर दी आपने। आप जिस घटना का ज़िक्र कर रही हैं उसके युवा अलग ही ग्रंथि से पीड़ित मालूम होते हैं। कितनी विसंगतियां हैं न समाज में?

    @ अंतर सोहिल जी
    आप नहीं थे जी, आप होते तो सभी बुजुर्गों को प्रणाम करते और स्वयं खड़े होकर भी उनको बैठने की जगह देते। आप जैसे संस्कारी युवकों की बहुत कमी है देश में।
    प्रणाम।

    @ zeal ( डॉ. दिव्या जी)
    Thank u very much.

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  17. खुशफहमी रखते हो भाई
    रखे रहो, हमें क्या :)

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  18. jis smaj me hm rh rhe hai vha bhaduri ka kam krne pr mhila ki tsveer akhbar me chhpti hai our doosre din ek tbka aisa bhi vha phuchta hai jo us pr firka ksne se baj nhi aata hai our ghr wale use hi khte hai kya jroorat thi bhaduri dikhane ki . ye sb kuchh nhi hai jb tk aatmik sahs nhi hoga ,ek jutta nhi hogi ab tk ye avyvstha kukurmutte ki trh yu hi sir uthaye ayedin njr aayegi .

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  19. सफर में यह दृश्‍य बनता ही रहता है.

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  20. कई बार ऐसे दृश्य नजर आ जाते हैं ...!

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  21. is post ne kai rail yatrayen yaad dila di..
    wahi beemari ke naam par seats par pasre log..
    wahi "chaar log hi bante hain ek seat par" wala jumla..
    wahi seat par bag rakh kar baithe log..
    aur wahi farz ka dogalapan..
    badhiyaa varnan..shaandaar post..

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  22. खूब कही। सबकी अपनी अपनी ट्राइब है। जब तक चल रही है चला रहे हैं, जब उखाड फेंके जायेंगे तब रोयेंगे बुरे वक्त को!

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  23. बहुत अच्छी प्रस्तुति। बहुत सुंदर लिखा है

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  24. @ अन्तर सोहिल जी
    चलिए खुशफहमी ही सही, जब तक बनी है बने रहने दीजिए। :)

    @ राजवंत राज जी
    सहमत हूँ आपसे। आभार टिप्पणी के लिए।

    @ राहुल जी
    @ वाणी गीत जी
    जी हाँ यह एक आम घटना ही है। कोई खास रोचकता या पठनीयता नहीं है इसमें। बस मुझे लिखने जैसा लगा तो मैंने लिख दिया। आभार आप दोनों का।

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  25. @ विनायक दुबे जी
    सही कहा, ये सब होता ही है रेल यात्रा में, धन्यवाद।

    @ स्मार्ट इंडियन (अनुराग जी)
    जी हाँ , वक्त वक्त की है बात है, धन्यवाद आपका।

    @ संजय भास्कर जी
    @ Patali-The-Village
    @ निर्मला कपिला जी
    धन्यवाद आप सभी का।

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  26. @सोमेश जी ,
    मेरी दृष्टि में गलौज सही है,
    आप अंतर्जाल पर भी खोजें

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  27. एक तो कन्या राशि, उस पर युवा वय, ऐसी छूट इस वर्ग को हर जगह हर स्थान पर उपलब्ध करवाने वाले प्रायः सैकडों की तादाद में मिल ही जाते हैं ।

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  28. @ अरविंद जी
    अंतर्जाल पर दोनों प्रयोग मिल रहे हैं पर मैंने आपकी बात मानकर गलौज कर लिया है।
    धन्यवाद।

    @ सुशील जी
    आपकी बात भी सही है पर इस घटना के दूसरे पहलू पर भी ध्यान दें। आभार टिप्पणी के लिए।

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